Book Title: Kalyan Kalika Part 1
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor

Previous | Next

Page 700
________________ मुद्रा-लक्षण] नामङ्गुलोनां क्रमसंकोचनेनाङ्गुष्ठमूलानयनात् संहारमुद्रा। विसर्जनमुद्रेयम् ।" भा०टी०--ग्राह्य वस्तु उपर हाथ फैलावीने कनिष्ठिकाथी मांडीने तजनी मुधीनी आंगलीओने अनुक्रमे वाली अंगुठाना मूल तरफ लाक्षाथी संहारमुद्रा निष्पन्न थाय छे, आ विसर्जनमुद्रा छ, मंत्रपट्ट आदि उपर जाप कर्या पछी आ मुद्रावडे जापविषयक देवतनुं विसजन कराय छे. परशुराम कल्पसूत्रमा संहारमुद्रा आ प्रमाणे छे“क्षिप्ताङ्गुलीरङ्गुलिभिः, संग्रथ्य परिवर्तयेत् । एषा संहारमुद्रा स्याद् , विसर्जनविधौ स्मृना॥" भाटी०--अंदर नाखेल आंगलीओ आंगलीओ वडे गुंथीने फेरववी ते संहारमुद्रा. विसर्जनविधिमा ए मुद्रा करवी. इति कल्याणकलिका-प्रतिष्ठापद्धतावयम् । लक्षणाख्योऽगमत् खण्डः, प्रथमः परिपूर्णताम् ।। भा०टी०-आ प्रमाणे कल्याणकलिका-प्रतिष्ठापद्धतिमा लक्षणखण्ड नामनो प्रथमखण्ड समाप्त थयो. इति तपागच्छाचार्य श्री विजयसिद्धिमूरिनिगदानुसारि संविग्नश्रमणावतंस श्री केसरविजय शिष्य पं० कल्याणविजयगणि विरचितायां कल्याण कलिका-प्रतिष्ठापद्धती लक्षणाख्यः प्रथमखण्डः समाप्तः 卐 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 698 699 700 701 702