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ज्योतिष लक्षणे-प्रतिष्ठालग्न ]
६०७ शशांकयुक्तांशकराशिकेन्द्रे, शुभग्रहाः स्युबलरश्मियुक्ताः। तदा लयं यात्यतिदोषसंघः, प्रतिग्रहेणैव यथा द्विजत्वम् ।।८०५।
भा०टी०-चंद्रयुक्तनवमांश अथवा राशिथी केंद्र (१।४।७।१०) स्थानमां जो बल अने तेजयुक्त सौम्यग्रहो पडया होय तो दोष समुदाय नष्ट थाय छे, जेम अधयं दानवडे ब्राह्मणत्व नष्ट थाय छे.
यदा शशांकोपचयत्रिकोणगः, शुभग्रहः सौम्यनिरीक्षितो बली। तदा गुणैर्दोषगणो विनश्यति,
यथा महादानगुणेन बाहुजः ॥८०६॥ भा०टी०-ज्यारे चंद्रथी ३-५-६-९-१०-११ आ स्थानोमां कोइ पण सौम्यग्रह दृष्ट शुभ ग्रह रहेल होय तो तेना गुणो वडे दोष सनुदायनो नाश थाय, जेम महादानना गुणवडे क्षत्रियना दोषोनो नाश थतां ते शुद्ध थाय छे.
जीव शुक्रो यदा केन्द्र, परस्परमुपागतो। नवांशमण्डले चक्रे, सर्वदोषविनाशदौ ॥८०७॥
भा०टी०-ज्यारे नवांशक कुंडलीमां गुरु शुक्र एक बीजाथी केंद्रमा आव्या होय तो ते सर्वदोषोनो नाश करे छे.
बुधस्थितांशराशेस्तु, भवराश्यंशगे विधौ । तदा दोषा ययुर्नाशं, पापा वा प्रभुवन्दनात् ।।८०८॥
भा०टी०- बुधाधिष्ठित अंशनी राशिथी अग्यारमी राशिना अंशमां चंद्र रह्यो होय तो दोषो नाश पामे छे जेम के पापीओ प्रभुवंदन द्वारा पापोनो नाश करेछे.
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