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१७ - मुद्रा लक्षण --
प्रतिष्ठादिविधानेषु, यासां पूर्णोपयोगिता । ता मुद्राः कथिता त्र, विधिकारहितेच्छया ॥१८॥
भा०टी० -- प्रतिष्ठा आदि विधिना कामोमां जेओनो विशेष उपयोग कराय छे, ते मुद्राओ विधिकारोना हितार्थे आ परिच्छेदमां कही छे.
मुद्राओनुं महत्त्व -
पूर्वकालमा मुद्राओनुं विशेष महत्र हतुं, कोइ पण देवनुं आराधन करतां तेनुं आह्वान करी तेनी प्रियमुद्रा देखाडवा पूर्वक जाप-पूजन करातुं हतुं, विद्यादेवीओ, दिशापालो, क्षेत्रपालो आदिनी मुद्राओ हती अने आजे पण प्राचीन प्रतिष्ठाविधिओमां संरक्षायेल छे, छतां आजे बधी ते मुद्राओ प्रचलित नथी, ते पैकीनी जे जे आजे प्रतिष्ठादिनां विधि-विधानोमा अथवा जापानुष्ठानोमां प्रयुक्त भाय छे ते घणी खरी अहियां आपी छे.
आ मुद्राओना निरूपणमां अमोए मुख्य आधारग्रन्थ निर्वाण कलिकाने मान्यो छे, छतां जे मुद्रानुं निरूपण निर्वाण कलिकामां न मल्युं त्यां बीजा प्रतिष्ठाकल्पोना आधारे ते मुद्रानुं वर्णन आप्युं छे.
मुद्गर मुद्रा आजे विधिकारो जे रीते देखाडे छे ते पौराणिक पद्धतिनी छे, जैन पद्धतिनुं वर्णन भिन्न छे, अमोए जैन पद्धति प्रमाणे मुद्गरमुद्रानुं स्वरूप लख्युं छे.
मत्स्यमुद्रा खरी रीते पौराणिक छे, प्राचीन कोइ पण जैन ग्रन्थम एनो उल्लेख नथी छतां आधुनिक विधिओमां एनो स्वीकार थयो छे अने विधिकारो जलानयनमां आ मुद्रानो प्रयोग करे छे तेथी अमोए पण एनुं निरूपण पौराणिक श्लोकना आधारे आप्युं छे.
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