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प्रासाद-लक्षणम् ]
भा०टी०-वास्तुक्षेत्रनी लंबाईने पहोळाईवडे गुणवी, पछी जे आंकडो आवे तेने आठनो भाग देवो, भाग लागतां जे आंक बाकी रहे ते प्रमाणे शास्त्रोक्त ध्वजादि आय जाणवो, १ शेष रहे तो ध्वज, २ रहे तो धूम, ३ रहे तो सिंह, ४ रहे तो श्वान, ५ रहे तो वृषभ, ६ रहे तो खर, ७ रहे तो गज अने शेष आंक जो शून्य आवे तो ध्वांक्ष आय जाणवो. आ आठे आयो पूर्वादि दिशाओमां अनुक्रमे रहेला छे. अने पोतानी संमुख दिशाना आयने अभिमुग्व रहेला छे, ते पोतानी दिशासंमुख द्वारवाला वास्तुनी आयुवृद्धि करनारा छे. - देवालयोमां अने अधमालयोमा शुभ आयध्वजः सिंहो वृषगजौ, शस्यन्ते सुरवेश्मनि! अधमानां खर-ध्वाक्ष-धूम-श्वानाः सुखावहाः ॥९८॥
भा०टी०-वल, सिंह, वृषभ अने गज, आ विषम आयो देवालयोमा आफ्ना प्रशंसनीय छे. अने खर, ध्वांक्ष, धूम तथा श्वान, आ चार सम आयो अधमजातिना मनुष्योनां घरोमां सुखदायक होय छे.
कालपरक आयोनी श्रेष्ठताध्वजः प्रायः कृतयुगे, त्रेतायां सिंह एव च ।। द्वापरे वृषबाहुल्यं, गज एव कलौ युगे ॥९९॥
भा०टी०-ध्वज कृतयुगमां, सिह त्रेतामां, वृष द्वापरमां अने गज कलियुगमा प्रायः विशेष प्रवल 'होय छे.
वर्णविशेषने आयविशेषनी श्रेष्ठताकल्याणं कुरुते सिंहो, नृपाणां च विशेषतः । ध्वजः प्रशस्यते विप्रे, वृषो वैश्ये उदाहृतः ॥१०॥
भा०टी०-सिंह आय क्षत्रिओने विशेषतः राजाओने कल्याणकारी छे, ध्वजाय ब्राह्मणने अने वृषाय वैश्य जातिने माटे प्रशंसनीय छे.
१ आ श्लोक हस्तलिखित पुस्तकमां छे. ૧૨
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