Book Title: Kalyan Kalika Part 1
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor

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Page 675
________________ [कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे उपरना कथन प्रमाणे एक भद्रा सिवाय सर्व करणो सर्व कार्योमा विहित छे अने रात्रिदिवसना भेदे भद्रा पण अदृष्ट ले, पण केटलाक ज्योतिषीओ क्रमागत के अक्रमागत भद्रा होय छतां सर्वथा भद्राने त्याज्य कहे छे तेथी शक्य होय त्यां सुर्धा भद्राने बी. बली नाग अने चतुष्पद आ ये करणो पण क्रूर होइ बनतां मुवी प्रतिष्ठामां वर्जवां, एम छनाये बीजां सर्व अंगो बलिष्ट होय तो करण ना कारणे ज ते समयने त्याज्य गणवो न जोड़ये, मात्र दिनविभागती सहा दिवसे अने रात्रि विभागनी भद्रा रात्रिए अवश्य वर्जवी. प्रतिष्ठामा लग्नशुद्धि-- प्रतिष्ठा मुहूर्तमा दिनशुद्धि प्रमाणे ज लग्नशुद्धि पण जाची, लग्नशुद्धिमा लग्नमां ग्रह स्थिति बराबर न होयानी दशामां लग्नमां उत्तम नवमांश लेवो जोइये, शास्त्रमा का छस्वार्धे नक्षत्रफलं, तिथ्यधैं तिथिफलं समादेश्यम् । वारफलं होरायां, लग्नफलं त्वंश के स्पष्टम् ।।७६९।। भा०टी०--नक्षत्रनुं फल नक्षत्रना (पूर्व ) अर्ध मां, नियिर्नु फल तिथिना (पूर्व ) अर्धमा, वार- फल तेनी होरामा अने लग्ननुं फल तेना नवमांशमां संपूर्णपणे मले छे. । प्रतिष्ठाना लग्नने अंगे वसिष्ठ कहे छे-- पञ्चेष्टिके जीवशशाङ्क सूर्यमुख्यैर्ग्रहै: सौम्यनवांशयुक्तैः । लग्ने स्थिरे चोभयराशिलग्ने, नवांशके चोभयभे स्थिरे वा ।। ७७० ।। चरोदये लग्नगते न कार्य, संस्थापनं नैव चरांशकेपि। चरोपिमुख्या सतुलांशकश्च, सदा मृदुत्वात्सुरसंनिवेशे ।। ७७१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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