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[कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे वंतना चरण सामीप्यमांज रही तेमना मुखदर्शनथी, तेमनी सेवाथी, तेमना धर्मशासननु वैयावृत्य करीने अने तेमना अनुयायियोने सहायता करीने पोताना जीवनने कृतार्थ करे छे. विशेष भक्त बनेल आ देवयुगलने शास्त्रकारो यक्ष-यक्षिणीना नामथी उल्लेखे छे. प्रत्येक तीर्थकरना शासनमा आई यक्ष-यक्षिणीनुं युगल उत्पन्न थाय, आईं जैनग्रन्थकारोनुं मन्तव्य छे.
३ तीर्थंकरोनी विद्यमानतामां यक्ष-यक्षिणीनां आ युगलो तेमना चरणोमा रहेता हता. आथी तीर्थकरनी मूर्तिओमां पण ए युगल बनावधानुं विधान चालु थयु. १ अशोकवृक्ष, २ मुरपुष्पवृष्टि, ३ दिव्यध्वनि, ४ चामर, ५ सिहासन, ६ भामंडल, ७ देवदुन्दुभि, अने ८ छत्रः ए प्रातिहार्या तीर्थकरोना समवसरणमां देवो द्वारा निर्मित थतां हतां, ते मूनि निर्माणमां पण कायम रह्यो, एज प्रमाणे यक्ष-यक्षिणीओ पण मूर्तिरचनामां तेना अंगरुपे मूर्तिना चरणसमीप जमणी-डावी वाजुमा बनावधानी पद्धति प्रचलित थई. जिनमूर्तिओ मंदिरोमां प्रतिष्ठिा थई. न्याथी आ यक्ष-यक्षिणी युगलो पण तेना परिकरना एकभाग तरीके देवालयमा प्रतिष्ठित थयां अने ज्यांसुधी मृतिओ परिकरवाली स्थापित थती हती, त्यांमुधी यक्ष-यक्षिणी युगल पण तेमना चरणसेवी तरीके मूर्तिनी साथे गर्भगृहमांज रहेतुं.
मुसलमानोना आक्रमण कालमा घणा स्थानोमा प्रतिमाओ जमीनमां भंडाराई हती, समयान्तरमा ठेकठेकाणे जमीनदोस्त थयेली ते प्रतिमाओ खोदकामो करतां वहार आवी पण त्यांसुधी मां भंडारनाराओ प्रायः परलोक पहोंची चुक्या हता. प्रतिमाओ निकले तो परिकर नहि अने काई स्थळे परिकर निकले तो ते योग्य प्रतिमा नहि, ते कालमा परिकर बनावनारा पण सारा रह्या नहि, वली परिकरना पखालमां पण मोर्टी महेनत; जो पुरूं ध्यान न रखाय तो
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