Book Title: Kalyan Kalika Part 1
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor
________________
५६८
[कल्याणकलिका-प्रथमखडे कृष्णाष्टम्यूलतो यावद्दिनं पैत्रं निशाकरः। क्षीणत्वाद् दुर्बलत्वेन, प्रधानं तारकाबलम् ॥७०१॥ विकलाङ्गे यथा पत्यौ, कार्येषु प्रभवः स्त्रियः। एवं चन्द्रे च विकले, तारा बलवती भवेत् ॥७०२॥
भाण्टी०-शुक्लपक्षनी प्रतिपदादि तिथिओमां तारा बलनी साथे चन्द्र बलवान् होय छे, जेम प्रौढ स्त्रीनो दुर्घल पति. ते पछी कृष्ण पक्षनी अष्टमीना पूर्वार्ध सुधी चन्द्र स्वतन्त्र बली होय छे जेम प्रौढ पुरुष स्त्रीना बल विना कार्य करे छे. कृष्णाष्टमीना उत्तरार्धयी अमावास्या सुधी चंद्र क्षीण होइ दुर्बल होय छे एटले ताराबलनी प्रधानता होय छे, जेम पतिनी विकल अवस्थामां स्त्रियो सर्व कार्योमा स्वतंत्र होय छे, एज रीते चन्द्रनी विकलतामां ताराबलवती होय छे.
अशुभ तारानो परिहार-ज्योतिःसागरेशशिनि परिस्फुटकिरणे, स्वतुङ्गभव ने स्वकीयवर्गे वा। क्षौरादिकेपि कार्य, तारादोषो न दोषाय ॥७०३॥ शुभदः स्वशुभोचगृहे, भवति यदोन्दुः कलावशेषोऽपि । ताराऽप्यशुभा शुभदा, भवति तदानीं न संदेहः ॥७०४॥
भान्टो०-चन्द्र स्पष्ट किरणो वडे प्रकाशतो होय, स्वगृही स्वउच्चनो अथवा स्ववर्गस्थित होय तो क्षौरादि कार्य जे खास तारा बलमा करवानुं छे, ते विरुद्धतारामां करे तो पण तारानी दुष्टता नडती नथी, चन्द्र भले कलामात्र शेष होय छतां गोचरथी शुभ होय स्वगृही होय सौम्यगृही होय अथवा उच्चनो होय तो तारा अशुभ होय तोये शुभ फल आपे छे एमां संदेह नथी.
दुष्टताराना अपवादमां गर्ग कहे छविपदि प्रत्यरे चैव, नैधने च यथाक्रमम् । प्रथमान्त्यतृतीयाः स्युर्वर्जनीया यथाक्रमम् ॥७०५।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702