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[कल्याणकालका प्रथमखण्डे आवतो होय तो ते लग्न शुभ कार्यमां वर्ज, भृगुषष्ठाख्य दोष एटले जे लग्नमां शुक्र छठे स्थाने पडतो होय पछी भले ते उच्चनो के शुभयुक्त होय छतां ते लग्न सदा त्याज्य करवू, लग्नथी मंगल आठमो होय, ते कुजाष्टम महादोष, भले पछी लग्न त्रण सौम्यग्रहयुक्त होय के उच्चगत होय छतां तेनो त्याग करवो.
षडष्टेन्दुर्महादोषो, लग्नादष्टमषष्ठगे । चन्द्रस्योचेऽथवा पूर्ण, मृत्युकारी स मङ्गले ||६६६।।
भा०टी०-चंद्रमा लग्नथी छट्ठा अथवा आठमा स्थानमा होय त्यारे 'षडष्टेन्दु' नामक महादोष उपजे छे, भले चंद्र उच्चनो होय के पूर्ण होय छतां ते मंगलकार्यमा मृत्युकारी निवडे छे.
लग्नाधीशे नीचगे शत्रुगे वा, रंध्रे चास्तं संगते वक्रगे वा । तद्लग्नं वैसंत्यजेत्सर्वकार्ये,
कुर्यात्कार्य चेत्तदा मृत्युभीतिः॥ भा०टो०-लग्नेश नीचनो होय, शत्रुक्षेत्री होय, अष्टम स्थानगत होय, अस्तगत होय अथवा वक्री होय तो ते लग्न सर्व कार्योमां वर्जवं, जो तेवा लग्नमां कोइ पण कार्य करे तो करनारने मरणनो भय रहे छे. जन्मस्थोऽरि गृहाधिपोऽथ मरणाधीशोऽथवा मृत्युदः, लग्नस्याधिपतिस्तथारिगृहगो वा मृत्युदो मृत्युगः। जन्मोदयलग्नतोष्टमगृहं वा द्वादशोंदयं, यात्रायेष्वखिलंधिया किल बुधैश्चिन्त्या भशुद्धिःसदा॥६६७।। ___ भा०टी०-षष्ठेश वा अष्टमेश लग्नमा मृत्युदायक होय छे, लग्नेश छठे अथवा आठमे होय तोये मृत्युदायक छ, जन्मराशि
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