Book Title: Kalyan Kalika Part 1
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor
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[कल्याणकलिका-प्रय यः कर्तरी नाम महान् हि दोषो, लग्नोद्भवान्नैकशुभग्रहोत्थान् । गुणान् निहन्ति प्रबलानशेषान् , .
व्याघ्रो यथा गोसमितिं समस्ताम् ॥६७१॥ भाण्टो०-लग्नमां तेनी पाछल आगल चालनारा पापग्रहो अनुक्रमे मार्गी अने वक्री होतां वर कर्तरी दोष उत्पन्न थाय छे पण तेज बने क्रूर ग्रहो जो शीघ्रगतिक होय वा वंने वक्रगतिक होय तो कर्तरी दोष गणातो नथी एम पितामहर्नु कथन छे. आ क्रूर कर्तरी महान दोष छे अनेक शुभग्रहजनित प्रबल सर्व गुणोनो नाश करे छे जेम वाघ समस्त गोसमुदायनो नाश करे छे.
फलप्रदीपकार कहे छे-~करयोः कर्तरीनेष्टा, महाविघ्नप्रदा ध्रुवम् । सौम्ययो तिदुष्टास्यान्मध्यमा पापसौम्ययोः ॥६७२॥
भा०टी-क्रूर ग्रहोनी कर्तरी नेष्ट निश्चयथी महाविन देनारी छे, सौम्य कर्तरी विशेष खराब नथी तथा क्रूर-सौम्य कर्तरी मध्यम प्रकारनी होय छे. क्रूरकर्तरीस्थित लग्न तथा चंद्र अने एनो परिहार--
क्रूरग्रहस्यान्तरगा तनुर्भवेद्, मृतिप्रदा शीतकरश्च रोगः। शमैर्धनस्थै रथयान्त्यगे गुरौ,
न कर्तरी स्यादिह भार्गवा विदुः ॥६७३॥ त्रिकोणकेन्द्रगो गुरु-खिलाभगो रचियंदा । तदा न कर्तरी भवेजगाद बादरायणः ॥६७४॥ पूर्व पश्चात् पापा-त्तिथ्यंशा घाटमध्यगश्चन्द्रः। वर्जयितव्यो योगे, यस्माद् राश्यंशरश्मियुतिः ॥६७५॥
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