Book Title: Kalyan Kalika Part 1
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor

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Page 644
________________ लग्न-लक्षणम् ] छे एम कहे छे ज्यारे अन्य ज्योतिषाचार्यों लग्न तथा चंद्रना नवमांशथी पंचावनमो नवमांश जो वर्जितग्रहदूषित होय तो तेने ज 'परमजामित्र' गणीने लग्नमां वर्जे छे. दैवज्ञवल्लभकार पण ए वातनुं समर्थन करे छे. लग्नेन्दुसंयुतादंशात् पञ्चपञ्चाशदंशके। ग्रहोन्यो यद्यसौ दोषो, गुणैरपि न हन्यते ॥६७९॥ भा०टी०- लग्नना तथा चंद्रना नवमांशथी पंचावनमा नवमांशमां जो कोइ ग्रह होय तो ए दोष गुणो वडे पण नष्ट थतो नथी. शुभग्रहकृत लग्नगतदोषभंगतिथिवासरनक्षत्र-योगलग्नक्षणादिजान् । सबलान् हरतो दोषान् , गुरुशुक्रो विलग्नगौ ॥६८०॥ त्रिकोणकेन्द्रगा वापि, भङ्ग ढोषस्य कुर्वते । वक्रारिनीचगा वापि, ज्ञजीवभृगवः शुभाः ॥६८१॥ भा०टी०-तिथि वार नक्षत्र-योग लग्न मुहूर्त आदिना बलवान् दोषोने लग्नमां रहेला गुरु शुक्र दूर करे छे, वली त्रिकोण (५-९) अने केंद्र (१।४।७।१०) मां रहेला वक्री, शत्रुक्षेत्री के नीचना शुभ बुध गुरु अने शुक्र लग्नदोषोनो भंग करे छे. आरंभसिद्धिकार कहे छेलग्नात् क्रूरो न दोषाय, निन्द्यस्थानस्थितोपि सन् । दृष्टाकेन्द्र त्रिकोणस्थैः, सौम्यजीवसितैर्यदि ॥६८२॥ भान्टी--लग्नथी वर्जित स्थानमां होवा छतां क्रूरग्रह जो त्रिकोण के केन्द्रमा रहेल बुध गुरु के शुक्रवडे पूर्ण दृष्टिए दृष्ट होय तो दोषकारक थतो नथी. लग्नजातान् नवांशोत्थान् , करदृष्टिकृतानपि । हन्याजीवस्तनौ दोषान् , व्याधीन धन्वन्तरिय॑था।। ६८३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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