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[कल्याण-कटिका-प्रथमसले तेने 'वामशायी' एटले डावे पडखे शयन करेल जणावे छे. अने कुक्षिभागे खात करवानुं विधान करे छ, वामशयन अने दक्षिणशयनमां कुक्षिनी दिशा एकबीजाथी तद्दन विपरीत आवे छे, आरंभसिद्धिर्नु दक्षिण शयन शो आधार धरावे छे ते कही शकता नथी, पण आ उपरथी एक कल्पना थइ शके के अर्वाचीन ग्रन्थोमां नागवास्तुनुं विलोम सर्पण जे प्रचलित थयुं छे तेनुं कारण आ दक्षिणपार्श्वशयन पण होइ शके,
१ वृषभ वास्तुगृहारंभमां जेम शेषवास्तु जोवाय छे तेम " आरम्भे वृषभ वास्तुं" इत्यादि वचनानुसार आजकाल वृषभवास्तु जोवानुं पण आवश्यक थइ पडयुं छे, वृषभ वास्तुओ बे प्रकारनां जोवामां आवे छे, 'माभिजित् ' अने 'निरभिजित् ' प्राचीन ग्रन्थोक्त वृषभवास्तुओमां ' अभिजित् 'नी गणना नथी ज्यारे अर्वाचीन ग्रन्थोक्त आ वास्तुमा अभिजित ग्रहण करेल छे, एम छतां बधां 'निरभिजित्' के बधां 'साभिजित् ' वास्तुआनो पण आपसमा पूरो मेल मलतो नथी, अमो आ वंने प्रकारना वास्तुओमांथी नमूनारूपे बेबे वास्तुचक्रोनुं वर्णन आपीये छीये, आजकाल प्रचलित 'साभिजित् ' वृषवास्तु-मिताक्षरोक्त
रविभात् सप्त नेष्टानि, शुभान्येकादशाष्टभात् । दशशेषाण्यनिष्ठानि, साभिजिद् वृषवास्तुनि ॥४४॥
भा०टी०-अभिजित् सहित वृषवास्तुमां सूर्य नक्षत्रथी ७ नक्षत्रो नेष्ट होय छे, आठमाथी १८ मा सुधीनां ११ श्रेष्ठ होय छ अने बाकीनां १९ माथी २८ सुधीनां १० अनिष्ट होय छे. १-सूर्यभात् चन्द्रभं-७ नेष्ठ, ११ श्रेष्ठ, १० नेष्ट. २ साभिजित् वृषवास्तु वास्तुप्रकरणोक्त
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