Book Title: Kalyan Kalika Part 1
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor

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Page 617
________________ [कल्याणकलिका-प्रथमलण्डे वणिक् च विष्टिः करणानि सप्त, चराणि यानि क्रमशो भवन्ति ॥५७२।। __ भाल्टो०-- पहेलं बव ते पछी पालव, कौलव, तैतिल गर वणिज अने विष्टि-भद्रो ७ करणो छ जे चर होय छे. तिथ्यर्डमाचं शकुनिधितीय, चतुष्पदं नागकसंज्ञितं च । किंस्तुघ्नमेतान्यचराणि कृष्ण चतुर्दशीपश्चिमभागतः । स्युः॥५७३॥ भाण्टी०- अचर करणोमा प्रथम शकुनि, बीजु चतुष्पद, त्रीजु नाग अने चोथु किंस्तुघ्न आ स्थिर करणोनी प्रवृत्ति कृष्णचतुर्दशीना उत्तरार्धथी थाय छे. - करणेशइन्द्रो विधाता मित्राख्य-स्त्वर्यमा भूहरिप्रिया। कीनाशश्चेति तिथ्यर्द्ध-नाथाः स्युः क्रमतस्त्वमी ।।५७४॥ कलिश्च रक्षो भुजगः, पवनश्च स्थिरेश्वराः॥ विज्ञेयाः सर्वकार्येषु, तिथ्यर्धेशबवादिषु ॥५७५।। भा टी०- इंद्र विधात। मित्र अर्यमा भूमि लक्ष्मी अने यम जे अनुक्रमे बवादि ७ चर करणोना स्वामी छे, अने कलि, राक्षस, सर्प अने पवन ४ स्थिर करणोना स्वामी जाणवा, विहित नक्षत्रना अभावे ते नक्षत्रना स्वामीवाला करणमा ते कार्य करवं. उदाहरण-अनुराधा विधेय कार्य करवू छे पण ते दिवसे अ. नुराधा नथी, आवी स्थितिमां ते दिवसे जो मित्रस्वामिक कौलव करण होय तो ते अनुराधाचें कार्य करे छे, करणोना स्वामिओ ब. ताववानुं अज प्रयोजन छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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