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लम-लक्षणम् ]
षड्वर्ग पञ्चवर्ग च चतुर्वर्ग शुभावहम् । त्रिवर्ग वापि सद्योगे, दधेकवर्ग तनुं त्वजेत् ॥६५२॥
भा०टी०-जे लग्नमां षड्वर्ग पंचवर्ग अथवा चारवर्ग सौम्यग्रहसंबन्धी होय ते शुभकारक छ अने लग्नमां कोइ बलवान् सौम्यग्रह पडेलो होय तो शुभत्रिवर्गवालुं लग्न पण लेवु, पण द्विवर्ग अथवा एकवर्गवाला लग्ननो तो त्याग ज करवो जोइये.
वसिष्ठ लग्नबलनो सारांश कहे छे-. शुभकार्याण्यखिलानि तु, त्रिकोणकेन्द्रस्थितेषु सौम्येषु । ध्ययनैधनरिपुलग्नै-रसंयुते यत्र तुहिनकरे ॥६५३॥
भाण्टी-जे लग्नकुंडलीमां सौम्य ग्रहो पहेले चोथे पांचमे सातमे नवमे के दशमे स्थाने रहेला होय, चन्द्रमा लग्नमां छढे आठमे के बारमे स्थाने न होय तेवा लग्नमां सर्व शुभकार्यों करवाथी सिद्ध थाय छे.
उदयास्तशुद्धि नारदमतेलग्नलमांशको स्वस्व-पतिना वीक्षितौ युतौ। न चेद्वाऽन्योन्यपतिना, शुभमित्रेण वा तथा ॥६५४॥ वरस्य मृत्युः स्यात्ताभ्यां, सप्तसप्तोदयांशको । एवं तौ न युतौ दृष्टौ, मृत्युर्वध्वाः करग्रहे ॥६५५॥
कश्यप कहे छेत्रिप्रकारेण सा शुद्धि-नचेल्लग्नं च निन्दितम् ।
अपि पश्चष्टिकं लग्न-मनेकगुणसंयुतम् । त्यजेद्यथा शुनाघातं, तथा हव्यं घृतप्लुतम् ॥६५६।।
भा०टी०- लग्न तथा तेनो उदित नवमांशक पोतपोताना स्वामिवडे दृष्ट अथवा युक्त न होय १, लग्नेश वडे नवमांश वा नव
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