Book Title: Kalyan Kalika Part 1
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor
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५५४
[ कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे लग्नाधिपः केन्द्रगतो बलिष्ठः, स्वोच्चादिवर्गे शुभवर्गसंस्थः । करोति कर्तुबहुलार्थसिद्धि, विपर्ययेनैव विपर्ययं च ॥६४८।। गृहादिवर्गगः खेटो, मित्रषड्वर्गगोथवा । लग्नेशः कार्यसिद्धयै स्यादेतत् सर्व मुनेर्मतम् ॥६४९॥ पापोपि लग्नाधिपतिस्त्रिषष्ठलाभस्थितः स्थानबलाधिकश्च । लग्नोत्थदोषानिखिलानिहन्ति, पापानि यद्वत्परमाक्षरज्ञः ॥ ६५० ॥
भा०टी०-जे राशि अधिपतिथी युक्त वा दृष्ट होय अथवा तो बुध या गुरु बडे दृष्ट होय अने बीजा ग्रहोथी युक्त के दृष्ट न होय ते बलवान् होय छे. लग्नेश बलवान् थइ केन्द्रमा रह्यो होय, स्वोच्चनो के स्वगृहादिषड्वर्गस्थित होय, सौम्यग्रहोना वर्गनो होय तो कर्ताना घणा कार्योनी सिद्धि करे छे अने अथी विपरीत होय तो विपरीत फल आपे छे. गृहादि स्ववर्ग अथवा मित्रषड्वर्गनो लग्नपति ग्रह कार्यसिद्धि करे छे ए सर्व मुनिने मान्य छे. लग्नेश पापग्रह छतां जीजे छठे ग्यारमे रहेल अने स्थानबली होय तो लग्नसंबन्धी सर्वदोषोनो नाश करे छे जेम तत्वज्ञानी दोषोने हणे छे,
पञ्चभिः शस्यते लग्नं, ग्रहैबलसमन्वितैः । चतुर्भिरपि चेत् केन्द्र, त्रिकोणे वा गुरुभृगुः ॥६५१॥
भाल्टी-जे लग्नकंडलीमां पांच ग्रहो बलयुक्त होय ते लग्न प्रशस्त गणाय छे, अने केन्द्र वा त्रिकोणमां गुरु अथवा शुक्र रहेल होय तो चारग्रहोना बलवालुं लग्न पण शुभ छे.
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