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[कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे भाण्टी०-गुरुना अस्तमा जे वर्जित छे तेज सिंहस्थ अने मकरस्थ गुरुमां पण वर्ज, कोई कही गया छ के-गुरुना वक्रत्वमां अतिचारमां, गुर्वादित्यमां अने १३ दिनना पक्षमां पण अस्तवर्जित कार्यों तथा दन्त-रत्नादिनां भूषणो वर्जवां.
चिन्तामणिकारना आ कथनानुसार खरे ज गुरु वक्रत्व अतिचारने दोष रूपे गणनारा 'केचित्' छे, 'सर्व' नहि. ए ज कारण छे के गुर्वतिचार अने विश्वघस्रपक्षमां शुभ कार्यो न करवानी ज्योतिपीओमां चर्चा नथी. मुहूर्तकल्पद्रुमकार स्वराशिमां गुरुवक्रत्व होता ३ दिवस वर्जवान कहे छे, पण स्वोच्चत्वमा गुरुवक्रत्व केटलं वर्जवं ए विषे मौन धारण करे छे. खरी रीते तो उच्चना गुरुवक्रत्वमा दोष ज नथी, एम ज कहेवू जोईये, ज्यारे गुरु स्वोच्चांश अने स्ववर्गस्थित होय त्यारे पण वक्री, शत्रुक्षेत्री अथवा नीचनो होवा छतां शुभ गणाय छे, तो उच्चनो होय त्यारे तो गुरु वक्री छतां अशुभ गणाय ज केम ? ए संबन्धमा सुधीशंगारवातिककार कहे छ के
वकारिनीचराशिस्थः, शुभकृत प्रोच्यते गुरुः । स्वोच्चांशस्थः स्ववर्गस्थो, भृगुणा ज्ञेन वा युतः ।।३।।
भाण्टी०-वक्री, शत्रुक्षेत्री, अथवा नीचराशिनो होवा छतां गुरु शुभकारक कहेवाय छे के जो ते पोताना उच्चांशनो, स्ववर्गनो, अथवा शुक्र वा बुधनी युतिमां होय, आ उपरथी सिद्ध ज छे के मकरना उच्चांशमा होवाथी पण गुरु जो शुभकारक छे, तो पोताना उच्चक्षेत्र-कर्कमा रहीने वक्री थतां ते दोषकारक केवी रीते बने ? ते विचारणीय वस्तु छे.
वक्रीग्रह बलवान के निर्बल ?-यद्यपि केटलाक ग्रन्थकारोए कशीग्रहने निर्बल अने मार्गस्थने पलवान गण्यो छ, तथापि
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