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परिच्छेद १४
जैनशासनदेव-लक्षणम् यक्षाश्च यक्षदेव्यश्व, ग्रहा दिक्पतयस्तथा । एतेषां वाहनं रूप-मायुधादि निरूप्यते ॥३४॥
भा०टी०-यक्षदेवो, यक्ष देविओ, ग्रहो तथा दिपालो; आ देवोनां वाहन, रूप, आयुध आदिनुं आ परिच्छेदमां निरूपण कराय छे.
आ विषयमां १. यक्ष-यक्षिणीनो अर्थ. २. तीर्थंकरो साथे यक्ष-यक्षिणीनो संबन्ध. ३. तीर्थंकरोना मंदिरमा तेमने बेसाडवार्नु कारण. ४. देवालयमां यक्ष-यक्षिणीने वेसवाने योग्य स्थान. ५. यक्ष-यक्षिणीनुं स्वरुप इत्यादि वातो आजे स्पष्ठीकरण मागे छे.
पूर्वकालमां गमे तेम होय पण वर्तमान समयमा यक्ष-यक्षिणीना संबन्धमां घणुं अज्ञान अने भ्रमणाओ चाली रही छे. एटला माटे आ विषयने लगतुं थोडुक स्पष्टीकरण करवू आ स्थले प्रासंगिक गणाशे.
9-यक्ष ए नाम व्यंतर जातिना देव पैकी एक वर्ग विशेषy छे. ए वर्गना पुरुषो ‘यक्ष अने स्त्रीयो 'यक्षिणों' कहेवाय छे. आ व्यंतर जाति यद्यपि हलकी देव जातिमां परिगणित छे, छतां एना पिशाच राक्षस आदि विभागना देवो क्रूर प्रकृतिना होय छे. ज्यारे 'यक्ष' बीजा व्यंतरोनी अपेक्षाए सात्विक अने भद्रप्रकृतिवाला होय छे. पृथ्वीगत धनभंडारो, अमूल्य रत्नो अने धातुनी खाणोना द्रष्टा होवाना कारणे पूर्वे तांत्रिक युगमा घणा धनार्थी लोको आ यक्षयक्षिणीयोनी साधना करता हता. कल्पसूत्रना वर्णन उपस्थी जणाय छे के भगवान वर्धमान स्वामी-महावीर, त्रिशला मातानी कूखे अव
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