________________
२७६
[कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे
नख
देध्ये । नख दैर्ध्य
पर्वाधिपधिपधि अंगुष्ट नख प्रतिमा तनु । पिंड प्रतिमा आसने पिंड मस्तके प्रतिमा पिंड १६
कोष्ठकोना संबन्धमा-कंईक स्पष्टता१. उपर्युक्त कोष्ठकोमा जणावेल हकीकत अमो आना करतां घणां थोडां पृष्टोमां कही शकत, पण तेम करवा जतां भिन्नकालीन अने भिन्न देशज ग्रन्थोक्त विषयनो खीचडो थई जवानो भय हतो जे अमने इष्ट न हतो. वाचकगण जोशे के आ कोष्ठकोमा भर्या करतां खाली स्थलो वधारे छे, एनो अर्थ ए छे के प्रत्येक ग्रन्थमां प्रत्येक वस्तुनुं निरुपण नथी, एके एक वात लखी, तो बीजाए बीजी. एनो अर्थ एम करवानो नथी के पहेलामां जे वात नथी कहेवाइ ते वीजामांथी लेवी अने बीजामां न होय ते त्रीजामांथी; बधा ग्रन्थो सार्वदेशीय अने समकालीन न होवाथी आम करवा जतां प्रतिमामां लक्षण सांकर्य आवीने सुंदर बनवाने बदले विचित्र बनवानो संभव छे, माटे ज्यांसुधी एक ग्रन्योक्त अंगमान मले त्यांसुधी बीजामां कहेल लेवु न जोईये. जे ग्रन्थोक्त लक्षणानुसारी प्रतिमा बनाक्वी होय ते ग्रन्थमां कोई बात न ज होय तो ते वात बीजा ते ग्रन्थमांथी लेवी के जे अभीष्ट ग्रन्थनी साथे घणे भागे मलतो आवतो होय, दाखला तरीके जयसंहितामां जे वातनो खुलासो न मलतो होय ते जिनप्रतिमा विधान अथवा वास्तुसारमांथी लेवो योग्य गणाय. कारण के ते घणे भागे मलता आवे छे. एथी उलटुं बृहत्सं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org