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परिच्छेद १३ परिकर लक्षणप्रातिहार्यमयः पुण्य-विभूतिदर्शनात्मकः । जिन-परिकरः कार्यः, स्वरूप-लक्षणान्वितः ॥३३॥
भा०टी०-जिनेश्वरनी पुण्य विभूतिनुं दर्शन करावनार, अष्ट प्रातिहार्य युक्त, पोताना रूप अने लक्षणे करीने युक्त एवो श्री जिनने परिकर कराववो जोइये. ___ 'परिकर' शब्दनो यौगिक अर्थ 'परिवार' एवो थाय छ, पण प्रस्तुत प्रकरणमां आ शब्द शुद्ध यौगिक रह्यो नथी, 'यौगिक मिश्र' बनी गयो छे. शास्त्रदृष्टिए कोई पण तीर्थकरना साधु-साध्वी समु. दायने ज तेमनो परिकर कही शकाय, पण शिल्पोक्त प्रस्तुत परिकरमां आ वस्तु नथी, अहिं परिकरनो रूढार्थ तीर्थंकरोने प्राप्त थयेल लोकोत्तर विशेषताओनो सूचक छे, आ लोकोत्तर विशेषताओर्नु पारिभाषिक नाम 'प्रातिहार्य' छे. का छे केअशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टि-दिव्यध्वनिश्चामर भासनं च। भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि
जिनेश्वराणाम् ॥१॥ __ भाटी०-आ पद्यमां सूचित अष्टप्रातिहार्योए तीर्थंकरोना अलोक भोग्य पुण्य परिपाकना फलरुपे वरेली सिद्धिओ छे, तेओ ज्यां जाय त्यां अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनी, चामर, सिंहासन भामंडल, देव दुन्दुभि, अने छत्र; ए आठ वस्तुओ हाजर ज होय, प्रस्तुत परिकर लक्षणमा एज आठ वस्तुओर्नु यथावस्थित मूर्तस्वरूप प्रदर्शित करायेलुं छे. जे नीचेना संक्षिप्त निरुपणथी समजाशे.
१-परिकरमां सर्व प्रथम तीर्थंकर प्रतिमाना आसन नीचेना पीठ- 'सिंहासन' नामथी निरुपण कयुं छे.
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