________________
२९८
[कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे भा०टी०-सहज, कुलीन अने स्वाधीन एवी जे आदि शक्ति जिनोए पोताना आत्मामां जोई ते शक्तिने हाथोमां कमल अने वरद बतावीने आसनना मध्यगर्भमा स्थापन करवी. १ते आदि शक्तिनो विस्तार उपांग सहित १२ आंगलनो करवो, २आदि शक्तिनी नीचे आसनना गर्भमां सुन्दर धर्मचक्र बनावq, आ धर्मचक्र सुदर्शनचक्रनी जेम अधर्मनो क्षय करनारुं छे. ते धर्मचक्रनी एक तरफ सत्यरुपी ' मृग' अने वीजी तरफ दयारूपिणी 'मृगी' बनाववी, आ बंने जाणे धर्मचक्रनो आश्रय पामीने निर्भय थयां होय एम चित्रवां, ते पछी कुमुद अने शंखनिधिना प्रतिक समा बे हाथीओ डाबी-जमणी तरफ करवा. हाथी भद्रजातिना अने १०-१०
आंगलना विस्तारमा बनाववा. हाथीओ पछी रौद्र रूपधारी अने महाकाय एवा २ ३शिवी १२-१२ आंगलनां बनाक्वा. आ शिवोना
१ शिल्परत्नाकरना परिकरलक्षणमां आनो उल्लेख 'मंध्यदेवी' ए नामथी कर्यो छे, त्यारे वास्तुसारमा एने 'चक्रधरी' 'गरुडांका' आवां नाम विशेषगो आप्यां छे. ठक्कुरफेरुना आ कथननी अपेक्षा समजी शकाती नथी. चक्रधरी एटले चक्रेश्वरी देवी प्रथम तीर्थंकरनी शासन यक्षिणी छे, एर्नु रूपक दरेक तीर्थकरना सिंहासन उपर शा माटे होवू जोईए ? अम्हारा मन प्रमाणे ५ विषयमां 'जयसंहिता'- कयन युक्तियुक्त लागे छे.
२ आदि शक्तिनुं विस्तारमान अहिंया उपांग सहित १२ भागनुं का छे, शिल्प रत्नाकरमा २-२ भागनी २ थांभलीओ अने ८ भागमा देवीनो विस्तार राखवार्नु विधान छे, त्यारे वास्तुसारमा ३-३ भागमां २ चमरधरो अने ६ भागनी देवी बनाववानुं विधान छे. आ देवीना रूपकनो निर्गम शिल्प रत्नाकरना परिकालक्षणमां ५ आंगलनो बताव्यो छे.
३ वास्तुसारमा आ रूपकोनां 'केसरी' अने शिल्परत्नाकरोक्त परिकर लझगमा 'सिंह' नामो कह्यां छे. जयसंहितामा 'शिव' कहेलो आ 'शिव' कोण? ए विचारणीय छे. ज्योतिषशास्त्रमा प्रयागमा 'शिव' कई दिशामां होय तो शुभ अने कइ दिशामां अशुभ ? आवा प्रसंगे “संमुखःस्थ शिवस्त्याज्यः" इत्यादि शब्दोमां 'शिव'नो उल्लेख छे. छतां "सर्वत्र भ्रमते रुद्रो,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org