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[कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे विस्तारथी गुणाकार करीने क्षेत्र फलात्मक जे मूलराशि कह्यो छे. तेमां व्ययनो आंक मेळववो अने घर अथवा प्रासादना नामाक्षरोनो आंक मेळववो, पछी ते क्षेत्रफलनी अंक राशिने ३ नो भाग देवो, भाग लागतां जे शेष रहे ते त्रण पैकीनो एक अंशक जाणवो, १ शेष रहे तो पहेलो इन्द्रांशक, २ शेष रहे तो बीजो यमांशक अने ० शेष रहे तो बीजो राजांशक जाणवो, इन्द्र, यम अने राजा; आ त्रण नामोवडे त्रण अंशको ओळखाय छे.
अंशकप्रदानस्थान-- प्रासाद-प्रतिमा-लिङ्ग, जगती-पीठ-मण्डपे । वेदी-कुण्ड-श्रुक्षु चैवे-न्द्रो ध्वजपताकादिके ॥१६८॥ क्षेत्राधीशे च नागेन्द्र, गणाध्यक्षे च भैरवे। ग्रहे मातृगुणे देव्यां, यमांशको धुरादिके ॥१६९॥ पुरप्राकार-नगर,-खेटे कूटे च कर्बटे। हर्म्य-राजवेश्मादीनां, शस्तो राजांशको मतः॥१७०॥
भा टी०-देवमन्दिर, देवप्रतिमा, शिवलिङ्ग, जगती, पीठ, मण्डप, वेदी, कुण्ड, श्रुचा, अने ध्वजापताका आदि; आ बधामां इन्द्रांशक ने यो श्रेष्ठ छे. क्षेत्रपाल, नागेन्द्र, गणाध्यक्ष, भैरव, ग्रहो, मातृकाओ अने देवी; आ बधाना स्थानोमां अने धुरा (स्थ-गाडा) आदिमा यमांशक लेवो. नगरनो कोट, नगर, खेड्डु, छावणी शाखानगर-महेल, राजमहालय आदि स्थानोमा राजांशक राखवो शुभ छे. स्वर्गादिभोगयुक्तानां, नृत्यगीतमहोत्सवे । प्रवरे पाण्डित्ये चेन्द्रां-शकः प्राज्ञोत्तमैमतः ॥१७१॥ वणिकर्मविधौ चैव, मद्यमांसादिकोद्भवे । इत्युक्तकमणि चैव, प्रशस्तः स्याद् यमांशक ॥१७२॥
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