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[कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे मूलकणे रथादौ वा, एक-द्वि-त्रीन् क्रमान्न्यसेत् । निरन्धारे मूलभित्तौ, सान्धारे भ्रमभित्तिषु ॥३५९॥ ऊरुशंगाणि भद्रेषु, ह्येकादिग्रहसंख्यया । प्रयोदशोद्धर्वे सप्ताघो, लुप्तानि चोरुशृंगकैः ॥३६०॥
भा०टी०-मंडोवरो ढंकाया पछी छाजा उपर प्रहारनो थर देवो, ज्या ज्या शंगो लगाडवानां होय त्यां पण सर्वत्र प्रहार देवो. प्रासादना प्रत्येक शंगने नीचे छाद्य लगाडीने उपर प्रहार देवो अने पछी शंग उठाक्वू, मूलकोण, पडरा आदि उपर एक, बे या त्रण शंगो क्रमे चढाववां, ३ थी अधिक शृंगो चढाववां नहि. निरंधार प्रासादनी मूल भींत उपर अने सांधार प्रासादनी भ्रमणीनी भींतो उपर शंगो चढाववां, शृंगो भीतमा समाववां पण गभारामां के भ्रमणीनी अंदर पडवा न देवां.
भद्रो उपर १ थी मांडीने ९ सुधीनी संख्यामां उरुशृंगो चढाववां, उरुशंगोनी उंचाईना १३ भाग कल्पीने निचला ७ भागो नीचेना बीजा उरुशंगवडे दबाववा, तेना नीचेना ७ भागो ते पछीना त्रीजा उरुशृंगवडे लोपवा; एम प्रत्येक पछीना उरुशृंगवडे पहेला उरुशृंगना ७ भागो लोपवा अने उपरना ६ भाग उघाडा राखवा. जेम शृंगो कोइ पण अंगविभाग उपर ३ थी अधिक चढतां नथी, तेम उरुशंगो पण ९ थी अधिक चढतां नथी.
अपराजितपृच्छायाम्निरंधारेषु सर्वेषु, नागरे मिश्रके पि वा। विमान-नागरच्छन्दे, कुर्याद विमान-पुष्यके ॥३६॥ भित्तेः पृथुत्वे यन्मानं, तच्छंगक्रम ऊर्ध्वतः । गर्भमध्ये यदारेखा, महामर्मक्षयावहा ॥३६२॥ एक-द्वि-त्रिक्रमा उक्ता, भित्तिमध्ये यथोसरम् ।
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