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[कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे षडंशेन त्रिशाखां तु, पञ्चशाखां तु पञ्चमिः ॥३२२।। सप्तशाखां युगांशेन, नवशाखां त्रिभिस्तथा । इदं मानं च ज्ञातव्य, शाखानां विस्तरे शुभम् ॥३२३॥
भा०टी०-द्वारनी उंचाइने अनुसारे बुद्धिमाने शाखानो विस्तार करवो, विशाखानी शाखानो विस्तार द्वारनी उंचाईना छट्ठा भाग जेटलो राखवो, पंचशाखनी शाखानो विस्तार द्वारोदयना पंचमांशे राखवो, सप्तशाखद्वारनी शाखानो विस्तार द्वारोदयना चतुर्थी राखवो अने नवशाखनी शाखानो विस्तार उंचाइना श्रीजा भाग जेटलो करवो, आ प्रमाणे शाखाओनो विस्तार शुभ जाणवो.
उत्तरंगद्वारना उत्तरंगना मध्यगागे ते देवनी मूर्ति करवी के जे देवनी मूर्ति तेमां प्रतिष्ठित करवी होय, तेमज ते देवना परिवारनां रूपको उत्तरंगमां पण करवां के जे शाखाओमां कर्यां होय, सामान्य देवमंदिरना उत्तरंगमां कलश, स्वस्तिक, आदि मंगल चिह्नो करवानो रिवाज पण छे, छतां वैदिक देवोना देवालयोना द्वारोना उत्तरंगोमां गणपति करवानो रिवाज विशेष छे.
जिनेन्द्रायतनना ८ प्रतीहारोइन्द्रश्चन्द्रजयश्चैव, महेन्द्रो विजयस्तथा । धरणेन्द्रः पद्मकश्च, सुनाभः सुरदुन्दुभिः ॥३२४॥ इत्यष्टौ प्रतिहाराश्च, वीतरागेऽतिशान्तिदाः । अनुक्रमेण संस्थाप्याः प्राच्यादिषु प्रदक्षिणाः ॥३२५॥
भा०टी०-जैन प्रासादोमा पूर्वमुख प्रासादना द्वारपालो, १ इन्द्र, २ इन्द्रजय करवा, दक्षिणमुख प्रासादना द्वारपालो १ महेन्द्र, २ विजय नामना करवा, पश्चिममुख प्रासादोना द्वारपालो १ धरणेन्द्र, २ पद्मक करवा अने उत्तरमुख प्रासादना द्वारपालो १ सुनाभ, २
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