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[कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे बारमो चन्द्र न लेवो; त्रीजी, पांचमी, सातमी तारा न लेवी; बीजो अंशक न लेवो; आठमो आय न लेवो अने सामो अने पाछल चन्द्रमा न लेवो.
वास्तुनुं जीवन अने विनाशअष्टभिश्च हते क्षेत्रे, फले षष्ठिविभाजिते । लब्धे दशगुणे जीवो, मृत्यु भूतभाजिते ॥१९२।। पृथिव्यापस्तथा तेजो, वायुराकाशमेव च। पञ्चतत्त्वानि प्रोक्तानि, विभक्तानि स्युरन्तके ॥१९३।। अप्सु चाभिर्भवेन्मृत्यु,-स्तेजस्यग्निबलं भवेत्। वायुर्वायुको देहे, त्वाकाशे शून्यता भवेत् ॥१९४॥ धन-धान्येषु नष्टेषु, देहः पतति जर्जरः । इत्थं मृत्युः प्रभवेद्धि, पञ्चतत्वविनाशतः ॥१९५॥
भा०टी०-क्षेत्रफलने ८ गुणुं करी ६० थी भागवू, लब्ध फलने १० गणुं करतां जे आवे ते वास्तुना आयुष्यनो आंक जाणवो, ते जीवितना अंकने ५ नो भाग देतां जे शेष रहे तेटलामा भूतथी ते वास्तु नाश थशे एम जाणवु. १ रहे तो पृथ्वी, २ रहे तो पाणी, ३ रहे तो अग्नि, ४ रहे तो वायु अने ५ अर्थात् • रहे तो आकाशतत्त्वना कोप वडे ते वास्तुनो नाश जाणवो.
अथवा जेम धन धान्यना नाशथी शरीर जर्जरित थइने पडी जाय छे, एज रीते पांच तत्त्वना विनाशथी वास्तु जीर्ण थइने पडी जाय छे.
(४) प्रासादांग निरूपण
जगतीमूल प्रासाद, एना मंडपो अने आ बधानी आगल पाछल डाबी जमणी कोटनी अंदरनी तमाम भूमिने शिल्पशास्त्रकारोए 'जगती'ना नामथी ओळखावी छे.
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