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प्रासाद-लक्षणम् ]
जो के जैनसूत्रोमा 'प्रासाद' करतां 'चैत्य' शब्दनो ज विशेष प्रयोग थयेलो जोवाय छे. कोशकारोए पण " चैत्यं जिनौकस्तबिम्बं, चैत्यो जिनसभातरुः' इत्यादि वचनोद्वारा जिनगृह, जिनप्रतिमा अने जिननी धर्मसभाना वृक्षना अर्थनो वाचक चैत्य शब्द बतान्यो छे, एटलंज नहि पण शिल्पना ग्रन्थोमांये
देवधिष्ण्यं सुरस्थानं, चैत्यमर्चागृहं च तत् । देवतायतनं प्राहु-विषुधागारमित्यपि ॥१॥
इत्यादि देवालयना नामो गणावतां 'चैत्य' शब्दनी तेमां परिगणना करी छे, छतां अमोए 'चैत्य' शब्दनो प्रयोग न करतां 'प्रासाद' शब्दनी पसंदगी करी छे तेनुं मुख्य कारण एज छे के अमो जे ग्रन्थोना प्रमाणोथी आ विषयर्नु निरूपण करवा मांगीये छीये ते ग्रन्थोमा सर्वत्र प्रासाद' शब्दनो ज उल्लेख थयो छे.
प्रासादोत्पत्तिनो इतिहासप्रासादोनी उत्पत्तिनो इतिहास घणो जूनो छे. जैन आगमो पैकीना व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) उपासकदशा, आचारांग-नियुक्ति अने आवश्यक-नियुक्ति आदि अनेक मौलिक आगमोमां अशाश्वत (कृत्रिम ) जिन-चैत्योना उल्लेखो मले छे, एटलं ज नहि पण मथुरानो देवनिर्मितस्तूप, तक्षशिलानो धर्मचक्रांकितस्तूप तथा अन्य जैनपूजास्थानो अने विदिशा-भिलसानो रथावर्तगिरिनो स्तूप इत्यादि स्तूपोर्नु अस्तित्व अने त्यो मलता हजारो वर्षपूर्व ब्राह्मी लिपिमां लखायेला अनेक शिलालेखो जैनसूत्रोक्त चैत्यविषयक उल्लेखोनी ऐतिहासिकता सिद्ध करे छे.
शिल्पशास्त्रना मौलिक ग्रन्थोमां ते प्रासादोनी उत्पत्तिनो पौराणिक इतिहास पण लखी दीधो छे. आ इतिहास भले आपणे खरो इतिहास न मानीये पण एथी एटलुं तो सिद्ध थाय छ के भारतवर्षतुं
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