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भी राजा का वज्र-हृदय नहीं पसीजा। उसने स्पष्ट शब्दों में सहायता देने से इनकार कर दिया । जन-मन भय से काँप उठा। लोगों की आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी।
इस समय आप शान्त नहीं रह सके । आवेश में उठ खड़े हुए और राजा से दो हाथ करने को तैयार हो गए। इस समय जनता का उन्हें सहयोग प्राप्त था। परिणाम यह हुआ कि राजा को सिंहासन से हटा दिया गया और उसके पुत्र को राजगद्दी पर बिठा दिया। परन्तु उन्हें इतने मात्र से सन्तोष नहीं हुआ। वे स्वयं भी कुछ करना चाहते थे । अतः वहाँ से घर पहुँचते ही उन्होंने अपनी जमीन और जेवर आदि बेचकर जनता के अन्न-संकट को दूर करने का प्रयत्न किया। उन की सेवा-निष्ठा एवं उनके सत्प्रयत्नों के फलस्वरूप जनता की स्थिति में सुधार हुआ। लोग अपना कार्य करने एवं जीवन निर्वाह करने में समर्थ हो गए और महामारी भी समाप्त हो गई । चारों ओर शान्ति की सरिता प्रवहमान होने लगी। गाँव में फिर से चहल-पहल शुरू हो गई । परन्तु, राजा के दुर्व्यवहार से आपके मन में राजदरबार के प्रति घृणा हो गयी थी। अतः आपने इस राज्य में काम नहीं करने की प्रतिज्ञा ग्रहण कर ली। जीवन का नया मोड़
आपके ज्येष्ठ भ्राता उन दिनों इन्दौर में रहते थे । सरकारी कार्यकर्ता होने के कारण सारा परिवार सनातन-वैदिक धर्म में विश्वास रखता था। जैन धम से उनका कोई परिचय नहीं था । परन्तु उन दिनों इन्दौर में जैन सन्तों का चातुर्मास था और एक मुनिजी ने चार महीने का व्रत ग्रहण कर लिया। वे सिर्फ गर्म पानी ही लेते थे । आपके भ्राताजी उनकी सेवा में पहुँचे और जैन-मुनियों के त्याग-निष्ठ जीवन से प्रभावित हुए। उन्होंने एक दिन मुनिजी को आहार के लिए निमंत्रण दिया। क्योंकि वे जैन मुनियों के आचार-विचार से परिचित थे नहीं, उन्हें यह पता नहीं था कि जैन मुनि किसी का निमंत्रण स्वीकार नहीं करते और न अपने लिए तैयार किया गया विशेष भोजन ही स्वीकार करते हैं । अतः मुनिजी ने यही कहा कि यथासमय जैसा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव होगा, देखा जायगा । परन्तु भाग्य की बात है कि सन्त घूमते-घूमते उसी गली में आ पहुँचे और उनके घर में प्रविष्ट हो गये । जब आपके बड़े भाई ने मुनिजी को अपने घर में प्रविष्ट होते देखा तो उनका रोम-रोम हर्ष से विकसित हो उठा, उनका मन प्रसन्नता से नाच उठा। वे अपने आसन से उठे
और सन्तों के सामने जा पहुंचे, उन्हें भक्ति-पूर्वक वन्दन किया। मुनिजी ने घर में प्रवेश किया और उनके चरण भोजनशाला-रसोईघर की ओर बढ़ने लगे । वहाँ पहुँच कर मुनिजी ने निर्दोष आहार ग्रहण किया और वहाँ से चल पड़े । परन्तु उनके वहाँ से चलते ही रसोई घर में केसर ही केसर बिखर गई। इस दृश्य को देखकर उनके मन में जन-धर्म एवं सन्तों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो गई और सारा परिवार जैन बन गया।
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