Book Title: Jain Yog Granth Chatushtay
Author(s): Haribhadrasuri, Chhaganlal Shastri
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

View full book text
Previous | Next

Page 358
________________ योग के भेद | २६६ [ ४ ] इक्किक्को य चउद्धा इत्थं पुण तत्तओ मुणेयव्वो। इच्छापवित्तिथिरसिद्धिभेयओ समयनीई ए ॥ तात्त्विक दृष्टि योगशास्त्र-प्रतिपादित परिपाटी के अनुसार इन पाँचों में से प्रत्येक के इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता तथा सिद्धि-ये चार-चार भेद हैं । अर्थात् स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलम्बन तथा अनालम्बन--इन पाँचों की ये चार-चार कोटियाँ - क्रमिक विकासोन्मुख स्थितियाँ, रूप या प्रकार हैं। [ ५-६ ] तज्जुत्तकहापोईइ संगया विपरिणामिणी इच्छा। सम्वत्थुवसमसारं तप्पालणमो पवत्ती उ ।। तह चेव एयबाहग-चितारहियं थिरत्तणं नेयं । सव्वं परत्थसाहग-रूवं पुण होइ सिद्धि त्ति ॥ योगयुक्त-योगाराधक पुरुषों की कथा-चर्चा में प्रीति, आन्तरिक उल्लास आदि उत्तम, अद्भुत भावों से युक्त इच्छा-स्पृहा, उत्कण्ठा योग का इच्छा संज्ञक भेद है। जिसमें उपशम-भावपूर्वक योग का यथार्थतः पालन हो, वह प्रवृत्ति संज्ञक भेद है। बाधाजनक विघ्नों की चिन्ता से रहित योग का सुस्थिर परिपालन स्थिरता कहा जाता है। स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलम्बन, अनालम्बन रूप योग साधक की आत्मा में तो शान्ति उत्पन्न करता ही है, जब वह उस योगी के सम्पर्क में आने वाले अन्यान्य लोगों को भी सहज रूप में उत्प्रेरित करे, तब सिद्धि-योग कहा जाता है। [ ७ ] एए य चित्तरूवा तहाखओवसमजोगओ हुति । तस्स उ सद्धापोयाइ जोगओ भव्वसत्ताणं ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384