Book Title: Jain Yog Granth Chatushtay
Author(s): Haribhadrasuri, Chhaganlal Shastri
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 356
________________ योग-विशिका योग की परिभाषा [ १] मोक्खेण' जोयणाओ जोगो सव्वो वि धम्मवावारो। परिसुद्धो विन्नेओ ठाणाइगओ विसेसेणं ॥ मोक्ष से जोड़ने के कारण यद्यपि सभी प्रकार का विशुद्ध धर्म-व्यापार-धार्मिक उपक्रम, क्रिया-कलाप योग है पर यहाँ विशेष रूप से स्थानआसन आदि से सम्बद्ध धर्म-व्यापार को योग समझना चाहिए। अर्थात् प्रस्तुत सन्दर्भ में योग शब्द से आसन, ध्यान आदि का अभिप्राय है। योग के भेद ठाणुन्नत्थालंबण-रहिओ तन्तम्मि पंचहा एसो। दुगमित्थकम्मजोगो तहा तियं नाणजोगो उ॥ तन्त्र-योगप्रधान शास्त्र में स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलम्बन तथा अनालम्बन-योग के ये पांच भेद बतलाये गये हैं। इन पहले दो-स्थान और ऊर्ण को कर्मयोग तथा उनके पश्चाद्वर्ती तीन-अर्थ, आलम्बन और अनालम्बन को ज्ञानयोग कहा गया है । स्थान-इसका तात्पर्य स्थित होना है। योग में आसन शब्द जिस अर्थ में प्रचलित है, यहां स्थान शब्द का उसी अर्थ में प्रयोग हुआ है । उदा. हरणार्थ पद्मासन, पर्यकासन, कायोत्सर्ग आदि का स्थान में समावेश है। वास्तव में आसन के लिए स्थान शब्द का प्रयोग विशेष संगत है। १ 'मुक्खेण' पाठान्तर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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