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अनुष्ठान-विश्लेषण | २७३
दोष तो मारने वालों पर ही है। इसी प्रकार जो स्वयं अज्ञान के कारण विधिशून्य अनुष्ठान में लगे हैं, उनका दोष किसी दूसरे पर नहीं है पर जो दूसरों से उपदिष्ट होकर वैसा करते हैं, उसका दोष तो उन उपदेशक गुरुओं को है ही।
तीर्थोच्छेद का कल्पित भय खड़ा करने वालों को चाहिए, वे इस पर गहराई से चिन्तन करें।
. [ १६ ] मुत्तूण लोगसन्नं उडढूण य साहुसमयसम्भावं । सम्मं पयट्टियव्वं बुहेणमइनिउणबुद्धीए ॥
लोक-संज्ञा-गतानुगतिक लोक-प्रवाह का त्याग कर, शास्त्र-प्रतिपादित शुद्ध सिद्धान्त ग्रहण कर प्रबुद्ध या विवेकशील व्यक्ति को अत्यन्त कुशल बुद्धिपूर्वक साधना में सम्यक्तया प्रवृत्त होना चाहिए। अनुष्ठान-विश्लेषण
[ १७ ] कयमित्थ पसंगेणं ठाणाइसु जत्तसंगयाणं तु । हियमेयं विन्नेयं सदणुट्ठाणत्तणेण तहा ॥ प्रस्तुत प्रसंग में इतना विवेचन पर्याप्त है। अब मूल विषय को लें
स्थान-योग, ऊर्ण-योग, अर्थ-योग, आलम्बन-योग तथा अनालम्बनयोग में जो यत्नशील-अभ्यासरत हों, उन्हीं के अनुष्ठान को सदनुष्ठान समझना चाहिए।
[ १८ ] एयं च पोइभत्तागमाणुगं तह असंगया जुत्तं । नेयं चउव्विहं खलु एसों चरमो हवइ जोगो॥
प्रीति, भक्ति, आगम-शास्त्रवचन तथा असंगता-अनासक्ति के सम्बन्ध से यह अनुष्ठान चार प्रकार का है, यों समझना चाहिए। इनमें अन्तिम असंगानुष्ठान अनालम्बन-योग है।
अनुष्ठान के इन चारों भेदों का विवेचन इस प्रकार है :
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