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अनुभाव-प्राकट्य | २७१ [ १०-११ ] अरिहंतचेइयाणं करेमि उस्सग एवमाईयं । सद्धाजुत्तस्स तहा होइ जहत्थं पयन्नाणं ॥ एवं चऽत्थालंबण जोंगवओ पायमविवरीयं तु । इयरेसि ठाणाइसु जत्तपराणं परं सेयं ॥
चैत्य-वन्दन के सन्दर्भ में जब कोई श्रद्धायुक्त पुरुष “अरिहंतचेइयाणं करेमि काउस्सगं ......." इत्यादि चैत्य-वन्दन-सूत्र का यथावत् शुद्ध उच्चारण करता है, तब उसे जागरूकतावश चैत्य-वन्दन-सूत्र के पदों का यथार्थ ज्ञान होता है।
यह यथार्थ ज्ञान अर्थ एवं आलम्बनमूलक योग को साध लेने से अविपरीत-साक्षात् मोक्षप्रद है।
जो अर्थ एवं आलम्बन योग से रहित हैं, केवल स्थान तथा ऊर्ण योग के साधक हैं, उनके लिए यह परम्परा से मोक्षप्रद है।
तात्पर्य यह है, यह सदनुष्ठान दो प्रकार का है-पहला अमतानुष्ठान तथा दूसरा तद्धतु-अनुष्ठान । पहला साक्षात्-शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति का हेतु है तथा दूसरा परम्परया--विलम्ब से मोक्ष-प्राप्ति का हेतु है ।
[ १२ ] इहरा उ कायवासियपायं अहवा महामुसावाओ ।
ता अणुरूवाणं चिय कायवो एयविन्नासो ॥
जो व्यक्ति अर्थ-योग एवं आलम्बन-योग से रहित है, स्थान-योग तथा ऊर्ण-योग से भी शून्य है, उसका यह (चैत्य-वन्दनमूलक) अनुष्ठान केवल कायिक चेष्टा है । अथवा महामृषावाद-निरी मिथ्या प्रवञ्चना है। अतः अनुरूप-अधिकारी, सुयोग्य व्यक्तियों को ही चैत्य-वन्दन-सूत्र सिखाना चाहिए।
[ १३ ] जे देसविरइजुत्ता जम्हा इह वोसरामि कायं ति। सुबइ विरईए इमं ता सम्मं चितियवमिणं ॥
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