Book Title: Jain Yog Granth Chatushtay
Author(s): Haribhadrasuri, Chhaganlal Shastri
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

View full book text
Previous | Next

Page 359
________________ २७० | योग-विशिका श्रद्धा, प्रीति या उत्साह के कारण भव्य-मोक्षगमनयोग्य प्राणियों के इच्छा-योग, प्रवृत्ति-योग, स्थिरता-योग तथा सिद्धि-योग, जो भिन्न-भिन्न रूप लिए हुए हैं-परस्पर भिन्न हैं, क्षयोपशम की तरतमता के कारण अनेक -असंख्य प्रकार के होते हैं। अनुभाव-प्राकट्य अणुकंपा निव्वेओ संवेगो होइ तह य पसमु त्ति। एएसि अणुभावा इच्छाईणं जहासंखं ॥ इच्छा-योग आदि के सध जाने पर क्रमशः अनुकम्पा–दुःखित प्राणियों को देखकर उन पर करुणा, निर्वेद-आत्मस्वरूप का बोध हो जाने से जगत् से विरक्ति, संवेग-मोक्ष प्राप्त करने की तीव्र उत्कण्ठा तथा प्रशम-क्रोध, विषय-वासना आदि का उपशम-ये अनुभाव-अन्तःस्थिति के ज्ञापक, सूचक कार्य स्वयं उद्भासित होते है । सम्यक्त्व का उद्भव होने पर भी अनुकम्पा, निर्वेद आदि उत्पन्न होते हैं, फिर यहां उनके उद्भूत होने का क्या विशेष अभिप्राय है, यह प्रश्न होना स्वाभाविक है । इस सन्दर्भ में ज्ञाप्य है कि सम्यक्त्व होने पर इनकी जो प्रतीति होती है, वह सामान्य है तथा यहाँ इनका अनुभावों के रूप में जो उल्लेख किया गया है, वह विशेषता-द्योतक है । अर्थात् इच्छा-योग आदि के सिद्ध हो जाने के फलस्वरूप अनुकम्पा आदि कोमल, सात्त्विक वृत्तियों का जीवन में असाधारण उद्रेक हो जाता है। एवं ठियम्मि तत्ते नाएण उ जोयणा इमा पयडा। चिइवंदणेण नेया नवरं तत्तण्णुणा सम्मं ॥ योग की तात्त्विक स्थिति उसके सामान्य-विशेष स्वरूप का विवेचन किया जा चुका है। चैत्य-वन्दन के दृष्टान्त से तत्त्ववेत्ता उसे और स्पष्टतया समझें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384