Book Title: Jain Yog Granth Chatushtay
Author(s): Haribhadrasuri, Chhaganlal Shastri
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 364
________________ अनुष्ठान विश्लेषण | २७५ उनके गुणों से अनुभावित ध्यान सूक्ष्म -- अतीन्द्रिय होने से अनालम्बन योग कहा जाता है । [ २० ] एयम्मि मोहसागरतरणं सेढी य केवलं चेव । तत्तो अजोगजोगो कमेण परमं च निव्वाणं ॥ इस अनालम्बन योग के सिद्ध हो जाने पर मोह-सागर तीर्ण हो जाता है । क्षपक श्रेणी प्रकट हो जाती है । फलतः केवलज्ञान उद्भासित होता है तथा अयोग - प्रवृत्तिमात्र के अपगम या अभाव रूप योग के सध जाने पर परम निर्वाण प्राप्त हो जाता है, जो योगी की साधना का चरम लक्ष्य है । ॥ योग विंशिका समाप्त ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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