Book Title: Jain Yog Granth Chatushtay
Author(s): Haribhadrasuri, Chhaganlal Shastri
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 363
________________ २७४ | योग-विशिका प्रीति-अनुष्ठान-योगोन्मुख क्रिया में इतनी अधिक प्रीति हो कि व्यक्ति अन्यान्य क्रियाओं को छोड़कर केवल उसी क्रिया में अत्यन्त तीव्र भाव से यत्नशील हो जाए, इसे प्रीति-अनुष्ठान कहा जाता है । भक्ति-अनुष्ठान-आलम्बनात्मक विषय के प्रति विशेष आदर-बुद्धिपूर्वक तत्सम्बद्ध क्रिया में तीव्र भाव से प्रयत्नशील होना भक्ति-अनुष्ठान है । आगमानुष्ठान-वचनानुष्ठान-शास्त्रवचनावली की ओर दष्टि रखते हुए योगी की जो साधनानुरूप समुचित प्रवृत्ति होती है, वह आगमानुष्ठान या वचनानुष्ठान है। असंगानुष्ठान-जब संस्कार साधना में इतने दढ़ ढल जाएँ, ओतप्रोत हो जाएँ कि तन्मूलक प्रवृत्ति करते समय शास्त्र का स्मरण करने की कोई अपेक्षा ही न रहे, धर्म जीवन में एकरस हो जाए, वह असंगानुष्ठान की स्थिति है। प्रस्तुत कृति में उपर्युक्त रूप में योग के अस्सी भेद बतलाये हैं । अर्थात् स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलम्बन तथा अनालम्बन के रूप में योग के पाँच भेद हुए । इच्छा, प्रवत्ति, स्थिरता एवं सिद्धि के रूप इनमें से प्रत्येक के चार-चार भेद और हए । अर्थात् स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलम्बन तथा अनालम्बन के ये चार-चार प्रकार हैं । यों ये बीस भेद बनते हैं। इन वीस में से प्रत्येक के प्रीति-अनुष्ठान, भक्ति अनुष्ठान, आगमानुष्ठान तथा असंगानुष्ठान--ये चार-चार भेद हैं । इस प्रकार कुल अस्सी भेद हो जाते हैं। [१६] आलंबणं पि एवं रूविमरूवी य इत्य परम् ति । तग्गुणपरिणइरूवो सुहुमोऽणालंबणो नाम ॥ प्रस्तुत कृति में किये गये विवेचन के अनुसार 'आलम्बन' तथा 'अनालम्बन' के रूप में ध्यान के दो भेद हैं। आलम्बन या-ध्येय भी रूपी -मूर्त, स्थूल या इन्द्रियगम्य तथा अरूपी-अमूर्त, सूक्ष्म या इन्द्रिय-अगम्य के रूप में दो प्रकार का है। सालम्बन ध्यान में रूपी आलम्बन रहता है तथा अनालम्बन ध्यान में अरूपी। परम मुक्त आत्मा अरूपी आलम्बन है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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