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स्थिरा-दृष्टि | ४७
स्वरूपानुकार' सधता है तथा साधक द्वारा किये जाते कृत्य-क्रियाकलाप भ्रान्ति रहित, निर्दोष एवं सूक्ष्मबोध युक्त होते हैं ।
स्थिरा-दृष्टि दो प्रकार की मानी गयी है- निरतिचार एवं सातिचार । निरतिचार दृष्टि अतिचार, दोष या विघ्न वजित होती है। उसमें होने वाला दर्शन नित्य-प्रतिपात रहित होता है, एक सा अवस्थित रहता है । सातिचार दृष्टि अतिचार सहित होती है, अतः उसमें होने वाला दर्शन अनित्य-न्यूनाधिक होता है, एक सा अवस्थित नहीं रहता।
स्थिरा-दृष्टि को रत्नप्रभा की उपमा दी गई है । निर्मल रत्नप्रभारत्नज्योति जैसे एक सी देदीप्यमान रहती है, उसी प्रकार निरतिचार स्थिरा दृष्टि में दर्शन अनवच्छिन्न, निर्बाध या सतत दीप्तिमय रहता है । रत्न पर यदि मल आदि लगा होता है तो उसकी चमक बीच-बीच में रुकती रहती है, एक सी नहीं रहती, न्यूनाधिक होती रहती है, सातिचार स्थिरा-दृष्टि की वैसी ही स्थिति है । अतिचार या किञ्चित् दुषितपन के कारण दर्शन में कुछ-कुछ व्याघात होता रहता है । ऐसा होते हुए भी जैसे मलयुक्त रत्न की प्रभा मूलतः मिटती नहीं, उसकी मौलिक स्थिरता विद्यमान रहती है, उसी तरह सातिचार स्थिरा-दृष्टि में जो रुकावट या दर्शन-ज्योति की न्यूनाधिकता होती है, वह कादाचित्क है। मूलतः इस (स्थिरा) दृष्टि की दर्शनगत स्थिरता व्याहत नहीं होती।
[ १५५ ] बाल धूलीगृह क्रोडा तुल्याऽस्यां भाति धीमताम् । तमोग्रन्थिविभेदेन भवचेष्टाऽखिलव हि ॥
इस (पाँचवीं स्थिरा) दृष्टि को प्राप्त सम्यग्दृष्टि पुरुष के अज्ञानान्धकारमय ग्रन्थि का विभेद हो जाता है—बाँस की गाँठ जैसी कठोर, कर्कश, सघन तथा गूढ़ तमोग्रन्थि इसमें टूट जाती है अतः प्रज्ञाशील साधकों को
१. स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इबेन्द्रियाणां प्रत्याहारः ।
-पातञ्जल योग सून २.५४
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