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१३२ | योगबिन्दु
शाली होता है, उसी प्रकार जो प्रकृति से शान्त एवं उदात्त होता है, वह शुभ भाव स्वायत्त करने का सौभाग्य लिये रहता है। वह सानन्द पुण्यात्मक शुभ अनुष्ठान में संलग्न रहता है।
[ १८८ ] अनीदृशस्य च यथा न भोगसुखमुत्तमम् । अशान्तादेस्तथा शुद्ध नानुष्ठानं कदाचन ॥
जो पुरुष धनाढ्य, सुन्दर एवं युवा नहीं है, वह उत्तम भोगों का आनन्द नहीं ले सकता। उसी तरह जो व्यक्ति अशान्त तथा निम्न है, वह शुद्ध क्रियानुष्ठान-धर्मानुसंगत श्रेष्ठ कार्य नहीं कर सकता।
[ १८६ ] मिथ्याविकल्परूपं तु द्वयो यमपि स्थितम् ।
स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पिनिर्मितं न तु तत्वतः ॥
दोनों का-भोगोन्मुख तथा साधनोन्मुख पुरुष का, जो अपेक्षित योग्यताओं से रहित हैं, यह सोचना कि वे अपना अभीप्सित प्राप्त कर लेंगे, अपनी बौद्धिक कल्पना के शिल्पी द्वारा बनाया गया मिथ्याविकल्पात्मक प्रासाद है, जो तत्त्वतः कुछ नहीं है, मात्र विडम्बना है।
[ १६० ] भोगाङ्गशक्तिवैकल्यं . दरिद्रायौवनस्थयोः ।।
सुरूपरागाशङ्क च कुरूपस्य स्वयोषिति
जिसके भोगोपयोगी अंग शक्तिशून्य हैं, जो निर्धन, यौवनरहित तथा कुरूप है, वह अपनी सुन्दर स्त्री में रागासक्त होता हुआ भी उसके सम्बन्ध में मन में आशंका लिये रहता है । सांसारिक सुख से वह सर्वथा वञ्चित होता है।
यही स्थिति उस पुरुष के साथ है, जो साधना के सन्दर्भ में सब प्रकार से अयोग्य है । वह साधना का आनन्द कहाँ से पाए ?
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