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सर्वज्ञवाद | २१३
में छोटा था, पर वह क्रमश: वृद्धि पाता गया । ग्रन्थ का जो तिब्बती रूपान्तर है, वह तो मूल ग्रन्थ के अन्तिम परिवद्धित रूप का भाषान्तर है । अन्तिम परिवर्तित रूप वाला 'समाधिराज' नेपाल में मूल रूप में प्राप्त है। समाधिराज की भाषा संस्कृत है, परन्तु वह ललित-विस्तर और महावस्तु की तरह संस्कृत-पालि-मिश्रित है । यह ग्रन्थ भारत में प्राप्त नहीं था, पर गिलगित प्रदेश में एक चरवाहे के लड़के को बकरियां चराते समय यह ग्रन्थ मिला । उसके साथ और भी कुछ एक ग्रन्थ थे। इन ग्रन्थों का सम्पादन कलकत्ता विश्वविद्यालय के सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ० नलिनाक्ष दत्त ने सुन्दर रीति से किया है और उसकी अंग्रेजी में विस्तृत भूमिका लिखी है। चीन और तिब्बत में पहले से ही ग्रन्थ का जाना, वहाँ उसकी प्रतिष्ठा, काश्मीर के एक प्रदेश में उसकी प्राप्ति, इसमें सूचित कनिष्क के समय तक हुई तीन धर्म-संगीतियों का निर्देश, इसकी पालि-संस्कृत-मिश्रित भाषा, इसमें लिया गया शून्यवाद का आशय-ये सब बातें देखते हुए ऐसा लगता है कि यह काश्मीर के किसी भाग में अथवा पश्चिमोत्तर भारत के किसी भाग में रचा गया हो । समाधिराज की प्रतिष्ठा और इसका प्रचार कभी इतना अधिक रहा हो कि उसने हरिभद्र जैसे महान् जैन आचार्य का ध्यान अपनी ओर खींचा।।
__ [ ४६०-४६२ ] तृष्णा यज्जन्मनो योनि वा सा चात्मदर्शनात् । तवभावान्न तद्भावस्तत् ततो मुक्तिरित्यपि ॥ न ह्यपश्यन्नहमिति स्निात्यात्मनि कश्चन । न चात्मनि बिना प्रेम्णा सुखकामोऽभिधावति ॥ सत्यात्मनि स्थिरे प्रेम्णि न वैराग्यस्य संभवः । न च रागवतो मुक्तितव्योऽस्या जलाञ्जलिः ॥
तृष्णा जन्म का निश्चय ही मूल है। वह आत्मदर्शन-आत्मा को एक स्वतन्त्र तत्त्व मानने से टिकती है। यदि आत्मा का अस्तित्व स्वीकार न किया जाये तो तृष्णा भी नहीं रहेगी। यों तृष्णा के अभाव में मोक्षदुःखों का आत्यन्तिक अभाव, दुःखों से छुटकारा प्राप्त होगा।
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