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योग के अधिकारी | २३७. से गुजरता रहा है। यही दीर्घ-संसार की श्रृंखला या चक्र है । इस चक्र में भटकते हुए जीवों में कई भव्य या मोक्षाधिकारी जीव भी होते हैं, जिनका कषाय-मान्द्य बढ़ता जाता है, मोहात्मक कर्म-प्रकृति की शक्ति घटती जाती है । जीव का शुद्ध स्वभाव कुछ-कुछ उद्भाषित होने लगता है। ऐसी स्थिति आजाने पर जीव की संसार में भटकने की स्थिति परिमित या सीमित हो जाती है। संसार के समस्त पुद्गलों को केवल एक बार किसी न किसी रूप में भोग सके, मात्र इतनी अवधि बाकी रह जाती है। उसे चरम-पुद्गलावर्त या चरमावर्त कहा जाता है।
[ १० ] अनियत्ते पुण तोए एगते व हंदि अहिगारो । तप्परतंतो भवरागओ दढं अणहिगारित्ति ॥
यदि तीव्र कर्म-प्रकृति निवृत्त नहीं हुई हो, व्यक्ति तत्परतन्त्रउसके वशंगत हो-उस द्वारा परिचालित हो तो वह निश्चय ही योग का अधिकारी नहीं है, क्योंकि उस पर भव-राग- सांसारिक रागात्मकतामय भाव छाया रहता है।
[ ११ ] तप्पोग्गलाण तगज्झसहावावगमओ य एवं ति ।
इय दट्ठव्वं इहरा तह बंधाई न जुज्जति ॥
जीव द्वारा गृहीत होना तथा उससे अपगत होना-पृथक होना कर्मपुद्गलों का स्वभाव है। इसी कारण ऊपर वर्णित अधिकार-अनधिकार संगत है। यदि ऐसा न हो-कर्म आत्मा द्वारा गहीत न हों, आत्मा से वियुक्त न हों तो बन्ध आदि की स्थिति घटित ही नहीं होती। .
[ १२ ] एयं पुण निच्छयो अइसयनाणी वियाणई नवरं ।
इयरो वि य लिगेहि उवउत्तो तेण भणिएणं ॥
आत्मा तथा कर्म के सम्बन्ध के विषय में निश्चित रूप से अतिशय ज्ञानी-पूर्णज्ञानी या सर्वज्ञ ही जानते हैं । दूसरे-छद्मस्थ-असर्वज्ञ
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