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२४२ | योग- शतक
अपुनर्बन्धक जैसे प्रथम भूमिका के साधारण साधक को पर पीड़ा
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वर्जन -- दूसरों को कष्ट न देना, गुरु, देव तथा अतिथि की पूजा - सत्कार, सेवा आदि, दीन जनों को दान, सहयोग आदि-ये कार्य करते रहने का उपदेश करना चाहिए ।
[ २६ ]
एवं चिय अवयारो जायइ मग्गम्मि हंदि एयस्स । रणे पहप भट्टो वट्टाए वट्टमोरइ
जैसे वन में मार्ग भूले हुए पथिक को पगडण्डी बतला दी जायें तो वह उससे अपने सही मार्ग पर पहुँच जाता है, वैसे ही वह साधक लोक-धर्म के माध्यम से अध्यात्म में पहुँच जाता है ।
द्वितीय श्रेणी का साधक
[ २७-२८ ]
बीयस्स उ लोगुतरधम्मम्मि अणुव्वयाइ अहिगिच्च । परिसुद्धाणाजोगा तस्स तहाभावमासज्ज ॥ तस्साऽऽसन्नतणओ तम्मि दढं पक्खवायजोगाओ । सिग्घं परिणामाओ सम्मं परिपालणाओ य ॥
विशुद्ध आज्ञा- योग शास्त्रीय विधिक्रम के आधार पर दूसरी श्रेणी के साधक (सम्यकदृष्टि) के भाव - परिणाम आदि की परीक्षा कर उसे लोकोत्तर धर्म-अध्यात्म- धर्म - अणुव्रत आदि का उपदेश करना चाहिए | यही उपदेश परिपालन की दृष्टि से उसके सन्निकट है । इसी में उसकी विशेष अभिरुचि संभावित है। इसका फल शीघ्र प्राप्त होता है तथा सरलता से इसका पालन किया जा सकता है ।
तृतीय श्रेणी का साधक -
[ २९ ]
तइयस्त पुण विचित्तो तदुत्तरसुजोगसाहणो भणिओ । नयनिउणं भावसारो ति ॥
सामाइयाइविसओ
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