Book Title: Jain Yog Granth Chatushtay
Author(s): Haribhadrasuri, Chhaganlal Shastri
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 348
________________ विकास : प्रगति | २६१ पाती होते हैं, चित्तपाती नहीं होते । क्योंकि उत्तम आशय -- अभिप्राय के कारण उनकी भावना - चित्तस्थिति शुद्ध होती है । वास्तव में चित्त की परिशुद्धि नितान्त आवश्यक है । शरीर लोकव्यापृत हो सकता है क्योंकि शरीर का, इन्द्रियों का वैसा गुण-धर्म है पर चित्त में यह आसंग नहीं आना चाहिए । बौद्ध दर्शन में प्रतिपादित हुआ है, चित्त की रक्षा के लिए स्मृति तथा संप्रजन्य की रक्षा अपेक्षित है । धर्म में, जिनका विधान किया गया है, जिनका निषेध किया गया है, उन्हें यथावत् स्मरण रखना स्मृति है । स्मृति को घर की रक्षा करने वाले द्वारपाल से उपमित किया गया है । द्वारपाल अवाञ्छित व्यक्ति को घर में प्रविष्ट नहीं होने देता, उसी प्रकार स्मृति अकुशल या पाप को नहीं आने देती । संप्रजन्य का अर्थ प्रत्यवेक्षण - काय और चित्त का निरीक्षण, संप्रेक्षण है । खाते, पीते, उठते बैठते, सोते, जागते - हर क्रिया करते वैसा करना 1 नितान्त आवश्यक माना गया है । इससे शम उत्पन्न होता है, जिसके प्रभाव से चित्त समाहित होता है । चित्त के समाहित होने से यथाभूत-दर्शन होता है । बोद्ध आचार्यों ने बड़ा जोर देकर कहा है, चित्त के अधीन सर्वधर्म हैं तथा बोधिधर्म के अधीन है । [ ५६ ] एमाइ जहो चियभावणाविसेसाओ मुक्काभिणिवेसं खलु जुज्जए सव्वं । निरूवियव्वं सबुद्धीए ॥ प्रस्तुत विवेचन यथोचित रूप में भावना की विशेषता ख्यापित करता है । सद्बुद्धिशील योगाभ्यासी किसी भी प्रकार का दुराग्रह न रख उसे निरूपित करे - उसकी चर्चा करे, जिज्ञासु जनों तक उसे पहुँचाये । विकास : प्रगति [ ६० ] एएण पगारेण जायइ तत्तो सुक्कझाणं सामाइयस्स कमेण तह इस प्रकार सामायिक की - समत्व-भाव की शुद्धावस्था प्रकट होती Jain Education International सद्धि ति । केवलं चैव ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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