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मनोभाव का वैशिष्ट्य | २५६
योगी को यह लब्धि प्राप्त हो जाती है, उसके स्पर्श मात्र से रोग दूर हो जाते हैं। योगी का विप्प-मल-मूत्र, खेल-कफ आदि, जल्ल-शरीर का मैल भी, जब वह (योगी) विप्पोसहि, खेलोसहि तथा जल्लमोसहि संज्ञक लब्धियां प्राप्त कर लेता है, रोग पर औषधि-सदृश काम करते हैं। प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त 'आमोसहि' इन्हीं में से एक है।
[ ८५ ] एईय एस जुत्तो सम्म असुहस्स खवगमो नेओ । इयरस्स बंधगो तह सुहेणमिय मोक्खगामि त्ति ॥
इन लब्धियों से युक्त साधक सम्यक्तया अशुभ कर्मों का क्षय करता है, शुभ कर्मों का बन्ध करता है। यों शुभ या पुण्य में से गुजरता हुआ, शुभ, अशुभ से अतीत हो मोक्षगामी बन जाता है। मनोभाव का वैशिष्ट्य
[ ८६ ] कायकिरियाए दोसा खविया मंडुक्कचुन्नतुल्ल त्ति ।
ते चेव भावणाए नेया तच्छारसरिस त्ति ॥
शारीरिक क्रिया द्वारा-मात्र देहाश्रित बाह्य तप द्वारा नष्ट किये गये दोष मेंढक के चूर्ण के समान हैं। यही दोष यदि भावना-मनोभावअन्तर्वृत्ति की पवित्रता द्वारा क्षीण किये गये हों तो उन्हें मेंढक की भस्म या राख के सदृश समझना चाहिए।
ग्रन्थकार ने यहाँ दार्शनिक साहित्य में सुप्रसिद्ध 'मण्डूक-चूर्ण' तथा 'मण्डूक-भस्म' के उदाहरण से कायिक क्रिया एवं भावनानुगत क्रिया का भेद स्पष्ट किया है।
ऐसा माना जाता है कि मेंढक के शरीर के टुकड़े-टुकड़े होकर मिट्टी में मिल जाएं तो भी नई वर्षा का जल गिरते ही मिट्टी में मिले हुए वे शरीर के मंग परस्पर मिलकर सजीव मेंढक के रूप में परिणत हो जाते हैं।
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