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२६६ | योग शतक विधि-निषेधमूलक भाव जुड़ा हो, सहज रूप में अनुतस हो, तभी व्यक्ति मोक्ष का आराधक कहा जा सकता है, अन्यथा वैसी' लेश्या तो इस अनादि जगत् में अनेक बार आती ही है । अर्थात् यदि लेश्या उत्तम भी हो, तो भी आज्ञायोग के बिना जीवन का साध्य सधता नहीं।
[१०१ ] ता इय आणाजोगो जइयव्वमजोगयत्थिणा सम्म । एसो च्चिय भवविरहो सिद्धीए सया अविरहो य॥
अतएव अयोग-अयोगी गुणस्थान, जहाँ मानसिक, वाचिक तथा कायिक योग-प्रवत्ति सर्वथा निरस्त हो जाती है, चाहने वाले साधक को आज्ञायोग में सम्यक्तया प्रयत्नशील रहना चाहिए-तदनुरूप विधि-निषेध का यथावत् पालन करते रहना चाहिए। इससे भव-संसार-जन्ममरण के चक्र से विरह-वियोग या पार्थक्य तथा सिद्धि-सिद्धावस्था-मोक्ष से शाश्वत काल के लिए अविरह-योग-संयोग हो जाता है-साधक मोक्ष से योजित हो जाता है; जुड़ जाता है।
'भवविरह' शब्द द्वारा ग्रन्थकार ने अपने अभिधान का भी सूचन किया है।
॥ योग शतक समाप्त ॥
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