Book Title: Jain Yog Granth Chatushtay
Author(s): Haribhadrasuri, Chhaganlal Shastri
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 350
________________ काल-ज्ञान | २६३ प्रकार एक जन्म में जीवों को जिसका अभ्यास रहा हो, जन्मान्तर में वे संस्कार रूप में उसे प्राप्त करते रहते हैं । [ ६५ ] ता सुद्धजोगमग्गोच्चियम्मि ठाणम्मि एत्थ वट्टज्जा। इह परलोगेस दढं जीवियमरणेस य समाणो॥ । योगी को चाहिए कि वह शुद्ध योग मार्गोचित स्थान में प्रवृत्त होवह ऐसे कार्य करे, जो निर्दोष योग-मार्ग के अनुरूप हों। वह इस लोक तथा परलोक में, जीवन तथा मृत्यु में स्थिर भाव से समान बुद्धि रखे। [ ९६ ] परिसुद्धचित्तरयणो चएज्ज देहं तहतकाले वि। आसन्न मिणं नाउं अणसणविहिणा विसुद्धणं ॥ जिसका चित्त रूपी रत्न परिशुद्ध-अत्यन्त निर्मल है, ऐसा योगी अपना अन्त समय समीप जानकर विशुद्ध अनशन-विधि से-आमरण अनशन स्वीकार कर देह का त्याग करे । काल-ज्ञान [ १७ ] नाणं चागमदेवयपइभासुविणंधराय दिट्ठीओ। नासच्छितारगादसणाओ कन्नगसवणाओ ॥ आगम-अष्टांग निमित्त विद्या, ज्योतिष शास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र आदि के सहारे, देव-सूचित संकेत द्वारा, प्रतिभा-स्वयं आविर्भूत अन्तर्आभास द्वारा, स्वप्न द्वारा तथा नासिका, नेत्रतारक व कर्ण से सम्बद्ध विशेष लक्षणों द्वारा मृत्यु के समय का ज्ञान होता है । आंगिक चिन्ह तथा शकुन आदि के आधार पर मृत्यु-काल-ज्ञान आदि के सन्दर्भ में भारतीय वाङमय में काफी चिन्तन-मन्थन हुआ है । वैदिक, जैन, बौद्ध आदि सभी धर्म-परम्पराओं में इस पर पुष्कल साहित्य रचा गया। जैन आगम वाङ्मय के बारहवें अंग दृष्टिवाद में, जो अब लुप्त है, यह विषय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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