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२६० | योगशतक
यदि मेंढक का शरीर जलकर राख हो गया हो तो फिर कितनी ही वर्षा क्यों न हो, वह सजीव नहीं होता।
योगसूत्र के टीकाकार वाचस्पति मिश्र ने भी तत्त्ववैशारदी (योगसूत्र की टीका) में यह उदाहरण प्रस्तुत किया है।
वस्तुतः तथ्य यह है, सद्बोधमय निष्ठा तथा भावपूर्वक जो सत् क्रिया की जाती है, वह दोषों को सर्वथा क्षीण कर देती है, जिससे वे पुनः नहीं उभर पाते, जैसे भस्म के रूप में बदला हुआ मेंढक का शरीर फिर. कभी जीवित नहीं होता।
बाह्य क्रिया द्वारा दोषों का सर्वथा क्षय नहीं होता, उपशम मात्र होता है, जिससे वे अनुकूल स्थिति पाकर फिर उभर आते हैं, जैसे टुकड़ेटुकड़े बना, मिट्टी में मिला में ढक का शरीर वर्षा होने पर जीवित हो जाता है।
[ ८७ ] एवं पुन्नं पि दुहा मिम्मयकणगकलसोवमं भणियं । अन्नेहि वि इह मग्गे नामविवज्जासभेएण ॥
अन्य परम्परा के आचार्यों-शास्त्रकारों (बौद्धों) ने योग-मार्ग में इसका नाम-विपर्यास से–मात्र कथन-भेद से मिट्टी के घड़े तथा सोने के घड़े की उपमा द्वारा आख्यान किया है । भावना-वजित बाह्य क्रिया-तपः कर्म मिट्टी के घट के सदृश है एवं भावनानुप्राणित क्रिया स्वर्ण-कलश के सदृश है। हैं दोनों घट ही पर दोनों की मूल्यवत्ता में भारी अन्तर है।'
यहाँ केवल विवेचन की शब्दावली में भिन्नता है, मूल तत्त्व एक ही है।
. [ ८८ ] तह कायपायणो न पुण चित्तमहिगिच्च बोहिसत ति। होंति तह भावणाओ आसयजोगेण सुद्धाओ॥ बौद्ध परम्परा में बोधिसत्त्व के सम्बन्ध में कहा गया है कि वे काय-.
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