Book Title: Jain Yog Granth Chatushtay
Author(s): Haribhadrasuri, Chhaganlal Shastri
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 340
________________ दोष - चिन्तन | २५३ यदि धन के प्रति राग हो तो इस रूप में चिन्तन करना चाहिएधन के अर्जन रक्षण आदि में सैकड़ों प्रकार के दुःख । धन सदा नहीं रहता । उसका विनाश भी हो जाता है। धन का फल दुर्गति है । क्योंकि अक्सर उसके आने पर मनुष्य उन्मत्त बन जाता है । [ ७० 1 दोसम्मि उ जीवाणं विभिन्नयं एव पोग्गलाणं च । अणवट्ठियं परिणइं विवागदोसं च परलोए 11 यदि द्वेष का भाव हो तो साधक यह चिन्तन करे - जीव और पुद् - गल - भौतिक वस्तु- समुदाय भिन्न हैं। उन (पुद्गलों) का परिणमन अनवस्थित- अस्थिर है - जिस रूप में वे अभी हैं, कालान्तर में वह रूप नहीं रहेगा । द्वेष का परिणाम परलोक में बड़ा अनिष्टकर होता है । [ ७१ ] चितेज्जा मोहम्मी ओहेणं ताव वत्थुणो तत्तं । उपाय -वय- धुवजुवं अणुहवजुत्तीए सम्मं ति ॥ साधक पहले अनुभव तथा युक्तिपूर्वक वस्तु-स्वरूप का भली भांति चिन्तन करे कि वह (वस्तु) उत्पाद - उत्पत्ति, व्यय - विनाश तथा ध्रुवताअविनश्वरता या शाश्वतता युक्त है । अर्थात् उसका मूल स्वरूप ध्रुव है पर बाह्य रूप, आकार-प्रकार आदि की दृष्टि से वह परिवर्तनशील है । ऐसी वस्तु के प्रति, जिसका रूपात्मक अस्तित्व ही स्थिर नहीं, कैसा मोह ! [ ७२ ] नाभावो च्चिय भावो अइप्पसंगेण जुज्जइ कथा वि । न य भावोऽभावो खलु तहासहावत्तभावाओ वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है कि अभाव भावरूप में घटित नहीं हो सकता, उसी प्रकार भाव अभाव का रूप नहीं ले सकता । ऐसा होने सेअभाव का भाव के रूप में तथा भाव का अभाव के रूप में परिणत होने से Jain Education International For Private & Personal Use Only — www.jainelibrary.org.

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