Book Title: Jain Yog Granth Chatushtay
Author(s): Haribhadrasuri, Chhaganlal Shastri
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 341
________________ २५४ | योग-शतक अतिप्रसंग दोष आता है, वस्तु-तत्त्व की व्यवस्था ही अनवस्थित हो जाती है। [ ७३ ] एयस्स उ भावाओ निवित्ति-अणुवित्तिजोगओ होति । उप्पायाई नेयं अविकारी अणुहवविरोहो ॥ वस्तु में स्वभावतः निवृत्ति-अनुवृत्ति- एक पर्याय का त्याग, दूसरे का ग्रहण-एक पर्याय से दूसरे पर्याय में जाना-ऐसा क्रम चलता रहता है। पर साथ ही साथ वस्तु का मूल तत्त्व स्थिर रहता है. इससे वस्तु में उत्पाद, विनाश तथा ध्र वता-ये तीनों ही सिद्ध होते हैं। अतः वस्तु को अविकारी-परिणमन या परिवर्तन रहित, कूटस्थ मानना अनुभव. विरुद्ध है। [ ७४ ] आणाए चितणम्मी तत्तावगमो निओगओ होइ । भावगुणागरबहुमाणओ य कम्मक्खओ परमो ॥ शास्त्रानुसार चिन्तन करने से निश्चय ही तत्त्व-बोध होता है। भावपूर्वक गुणों का, गुणी जनों का बहुमान करने से परम-अत्यन्त कर्म-क्षय होता है। [ ७५ ] पइरिक्के वाघाओ न होइ पाएण जोग वसिया य ।। जायइ तहा पसत्था हंदि अणब्भत्थजोगाणं ॥ जिन्होंने योग का अभ्यास नहीं किया है, उनको भी एकान्त में चिन्तन करने से प्रायः कोई व्याघात-विघ्न, प्रातिकूल्य नहीं होता। प्रत्युत इससे उनका उत्तम योग पर अधिकार होता है। दूसरे 'शब्दों में वे योग-साधना के पथ पर आरूढ़ होने के अधिकारी हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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