Book Title: Jain Yog Granth Chatushtay
Author(s): Haribhadrasuri, Chhaganlal Shastri
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 327
________________ २४० | योगशतक तायें आ जाती हैं, जिससे विवेक-प्रसूत पवित्रता का दिग्दर्शन होता है। वहाँ वे सम्यक्त्व के सड़सठ चिन्हों के रूप में व्याख्यात हुई हैं। उनमें उपयुक्त कौशल आदि पाँच 'भूषण' संज्ञा से अभिहित हुए हैं। [ १६ ] किरिया उ दंडजोगेण चक्कभमणं व होइ एयस्स । आणाजोगा पुवाणुवेहओ चेव नवरं ति ॥ चक्र को डण्डे से घुमा देने पर जैसे वह चलने लगता है, उसी प्रकार उक्त साधक की जीवन-चर्या, व्यावहारिक क्रिया-प्रक्रिया शास्त्रयोग सेशास्त्रानुशीलन से प्राप्त पूर्व संस्कारों द्वारा चलती रहती है। [ २० ] वासीचंदणकप्पो समसुहदुक्खो मुणो समक्खाओ । भवमोक्खापडिबद्धो अओ य पाएण सत्थेसु ॥ शास्त्रों में मुनि को वासि चन्दनसदृश कहा गया है - जो वसूला, कुल्हाड़ा चन्दन के वृक्ष को काटता है, वह वृक्ष उसको भी सुगन्धित करता है। उसी प्रकार साधु बुरा करने वाले का भी भला करता है । वह सुखदुःख में समान भाव रखता है । जैसे कोई उसकी देह को वसूले से छीलता है, कोई उसकी देह पर चन्दन का लेप करता है, वह दोनों को ही समान मानता है । न वह देह छीलने वाले पर क्रुद्ध होता है तथा न वह चन्दन का लेप करने वाले पर प्रसन्न होता है। वह मुनि न संसार में आसक्त होता है और न मोक्ष में ही आसक्ति रखता है। वह अनासक्त भाव से मोक्षोन्मुख क्रिया में तत्पर रहता है। अधिकारी भेद [ २१ ] एएसि नियनियभूमिगाए उचियं जमेत्थऽणुट्ठाणं । आणामयसंजुत्तं तं सव्वं चेव जोगो ति ॥ यों जो अपनी-अपनी उपयुक्त भूमिकाओं के योग्य तथा आज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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