Book Title: Jain Yog Granth Chatushtay
Author(s): Haribhadrasuri, Chhaganlal Shastri
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 336
________________ कर्म-प्रसंग | २४९ आत्मा को दूषित-कलुषित करने के कारण राग, द्वेष तथा मोह दोष कहे गये हैं। वे कर्मों के उदय से जनित आत्मपरिणाम हैं। [ ५४ ] कम्मं च चित्तपोग्गलरूवं जीवस्सऽणाइसंबद्ध । मिच्छत्ताइनिमित्तं नाएणमईयकालसमं ॥ कर्म विविध पुद्गलमय हैं । वे जीव के साथ अनादि काल से सम्बद्ध हैं। मिथ्यात्व, प्रमाद, कषाय तथा योग द्वारा वे आत्मा के साथ संपृक्त होते हैं । भूतकाल के उदाहरण से इसे समझना चाहिए। [ ५५ ] . अणुभूयवत्तमाणो सम्वोवेसो पवाहओऽणाइ । जह तह कम्मं नेयं कयकत्तं वत्तमाणसमं ॥ जो भी भूतकाल है, वह वर्तमान का अनुभव किये हुए है-कभी वह वर्तमान के रूप में था। फिर भूत के रूप में परिवर्तित हुआ। इस अपेक्षा से वह सादि है पर प्रवाह रूप से अनादि है। कर्म को भी वैसा ही समझना चाहिए। वह कृतक-कर्ता द्वारा कृत-किया हुआ होने के कारण वर्तमान के समान है, सादि है, प्रवाहरूप में अनादि है। [ ५६ ] मुत्तेणममुत्तिमओ उवघायाणुग्गहा वि जुज्जति । जह विन्नाणस्स इहं मइरापाणोसहाईहि ॥ जैसे मदिरा-पान, औषधि-सेवन आदि का चेतना पर प्रभाव पड़ता है-मदिरा पीने से मनुष्य अपना होश गंवा बैठता है, सशक्त रसायनमय औषधि से मरणोन्मुख, मूच्छित रोगी भी एक बार होश में आ जाता है। बोल तक लेता है। उसी प्रकार मूर्त-रूपी कर्म का अमूर्त आत्मा पर प्रतिकूल-अनुकूल-बुरा, भला प्रभाव पड़ता है । [ ५७ ] एवमणाई एसो संबन्धो कंचणोवलाणं व । एयाणमुवाएणं तह वि वियोगो वि हवइ ति ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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