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२५० | योग-शतक
आत्मा और कर्म का सम्बन्ध स्वर्ण तथा मृत्तिका-पिण्ड के सम्बन्ध की तरह अनादि है । खान में सोना और मिट्टी के ढेले कब से मिले हुए हैं, यह नहीं कहा जा सकता। यही स्थिति आत्मा और कर्म के पारस्परिक सम्बन्ध की है। ऐसा होते हुए भी उपाय द्वारा उनका वियोग-पार्थक्य साध्य हैं।
[ ५८ ] एवं तु बंधमोक्खा विणोवयारेण दो वि जुज्जति।
सुहदुक्खाइ य दिट्ठा इहरा " कयं पसंगेण ॥
यों बन्ध तथा मोक्ष दोनों ही आत्मा के साथ यथार्थत: घटित होते हैं । यदि ऐसा न हो तो अनुभव में आने वाले सुख तथा दुःख आत्मा में घटित नहीं हो सकते। वोष-चिन्तन
[ ५६-६० ] तत्थाभिस्संगो खलु रागो अप्पोइलक्खणो दोसो । अन्नाणं पुण मोहो को पीडइ मं दढमिमेसि ॥ नाऊण तओ तस्विसय-तत्त-परिणय-विवाग-दोसे ति।
चितेज्जाऽऽणाइ दढं पइरिक्के सम्ममुवउत्तो ॥ ... दोषों में राग–अभिसंग या आसक्ति रूप है, द्वेष का लक्षण अप्रीति है, मोह अज्ञान है । इनमें से मुझे डटकर-अत्यधिक रूप में कौन पीड़ा दे रहा है, यह समझकर उन दोषों के विषय में उनके स्वरूप, परिणाम, विपाक आदि का एकान्त में एकाग्र मन से भलीभाँति चिन्तन करे।
[ ६१ ] गुरु देवयापमाणं काउं पउमासणाइठाणेणं । दंसमसगाइ काए अगणंतो तग्गयज्झप्पो ॥ चिन्तनीय विषय में मन को अनुस्यूत कर-भलीभांति लगाकर,
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