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प्रथम श्रेणी का साधक | २४१ शास्त्राज्ञा रूपी अमृत से युक्त है-शास्त्रनिरूपित दिशा के अनुरूप है, वह सभी योग है।
[ २२ ] तल्लक्खणजोगाओ चित्तवित्तीनिरोहओ चेव ।
तह कुसलपवित्तीए मोक्खम्मि य जोमणाओ ति ॥
चित्तवृत्ति का निरोध, कुशल-पुण्यात्मक प्रवृत्ति, मोक्ष से योजनजोड़ना- इत्यादि योग के लक्षण भिन्न-भिन्न श्रेणी, परम्परा आदि के व्यक्तियों के समुचित अनुष्ठान में घटित हैं-संगत हैं।
[ २३ ] एएसि पि य पायंऽपज्झाणाजोगओ उ उचियम्मि । अणुठ्ठाणम्मि पवित्ती जायइ तह सुपरिसुद्धि ति॥
दूषित ध्यान एवं संक्लेशमय संस्कारों के न होने के कारण इन भिन्नभिन्न अधिकारियों-योग्य साधकों की अपने-अपने अनुष्ठान में प्रवृत्तियोगाभ्यास आदि साधनाक्रम सुपरिशुद्ध होता है।
[ २४ ] गुरुणा लिगहि तो एएसि भूमिगं मुणेऊणं ।
उवएसो वायव्वो जहोचियं ओसहाहरणा ॥
गुरु को चाहिए कि वे उनके लक्षणों से उनकी भूमिका पहचानें और उनके लिए जैसा उचित समझें, उपदेश करें, जैसे सुयोग्य चिकित्सक भिन्नभिन्न रोगियों की दैहिक स्थिति, प्रकृति आदि देखते हुए औषधि, औषधि की मात्रा, अनुपान, पथ्य आदि सब बातों का ध्यान रखकर जिस रोगी को जिस प्रकार जो औषधि देनी हो, देता है। प्रथम श्रेणी का साधक
[ २५ ] पढमस्स लोकधम्मे परपीडावज्जणाइ ओहेणं । गुरुदेवातिहिपूयाइ वीणदाणाइ अहिगिच्च ॥
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