Book Title: Jain Yog Granth Chatushtay
Author(s): Haribhadrasuri, Chhaganlal Shastri
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 331
________________ २४४ | योग-शतक अणिग्रहणा बलम्मी सम्वत्थ पवत्तणं पसंतीए । नियलाभचिंतणं सइ अणुग्गहो मे ति गुरुवयणे ॥ संवरनिच्छिड्डत्तं सुद्ध ञ्छाजीवणं सुपरिसुद्ध । विहिसज्झाओ मरणादवेक्खणं जइजणुवएसो ॥ गुरु के तन्त्र-आज्ञा में रहते हुए गुरुकुल में निवास करना, यथोचित रूप में विनय-धर्म का पालन करना, यथासमय अपने रहने के स्थान के प्रमार्जन आदि में यत्नशील रहना, अपना बल छिपाये बिना-मैं क्यों इतना कष्ट करू', इस संकीर्ण भावना से अपना बल न छिपाते हुए अर्थात् अपनी पूरी शक्ति लगाते हुए सभी कार्यों में शान्तभाव से प्रवृत्त रहना, गुरु के वचनों का पालन करने में मेरा लाभ-कल्याण है, यों सदा चिन्तन करना, निर्दोष रूप में संयम का पालन करना, विशुद्ध भिक्षावृत्ति से जीवन-निर्वाह करना, यथाविधि स्वाध्याय करना तथा मृत्यु जैसे कष्टों का सामना करने को समुद्यत रहना--यह यति-धर्म है। उपदेश : नियम [ ३६ ) उवएसो विसयम्मी विसए वि अणीइसो अणुवएसो। बंधनिमित्तं नियमा जहोइओ पुण भवे जोगो ॥ सुयोग्य साधक को उचित विषय में करने योग्य कार्यों का उपदेश देने के साथ-साथ उसमें बाधा उत्पन्न करने वाली हेय बातों से बचने का उपदेश न दिया जाये तो ऊपर योग-साधना का जो विधिक्रम बताया गया है, वह अवश्य ही बन्धन का कारण बनता है। [ ३७ ] गुरुणो अजोगिजोगो अच्चतविवागदारुणो नेओ । जोगिगुणहोलणा-नट्ठनासणा-धम्मलाघवओ उपदेष्टा गुरु यदि अयोग्य व्यक्ति को योग का उपदेश करते हैं तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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