Book Title: Jain Yog Granth Chatushtay
Author(s): Haribhadrasuri, Chhaganlal Shastri
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 333
________________ २४६ | योग शतक इस सम्बन्ध में ऐसा भी अभिमत है - शुभ संस्थान - वरिष्ठ आकारप्रकार द्वारा शरीर की शुभ- मधुर, मनोज्ञ स्वर द्वारा वाणी की, शुभ स्वप्न द्वारा मन की उत्तम सिद्धि समझनी चाहिए । [ ४२ ] एत्थ उवाओ य इमो सुहृदव्वाइसमवायमासज्ज । आसज्जइ गुणठाणं सुगुरुसमीवम्मि विहिणा उ ॥ शुभ द्रव्यादि समवाय - शुभ द्रव्य, शुभ क्षेत्र, शुभ काल आदि का अवलम्बन कर सद्गुरु के सान्निध्य में विधिपूर्वक प्रस्तुत उपाय - क्रियासमुदय स्वीकार किया जाता है, तभी विकासोन्मुख गुणस्थान प्राप्त होता है । [ ४३ ] नेओ । वंदणमाई उ विही निमित्तसुद्धीपहा णमो सम्मं अवेक्खियवो एसा इहरा विही न भवे ॥ वन्दन आदि की विधि में निमित्त शुद्धि की प्रधानता है, ऐसा जानना चाहिए । अतः अपेक्षित है कि साधक इसका भलीभाँति अवेक्षण — अवलो - कन करे – इस पर चिन्तन - विमर्श करे अन्यथा यह विधि परिशुद्ध नहीं होती । [ ४४ ] उड्ढं अहियगुणेह तुल्लगुणेहिं च निच्च संवासो । तग्गुणठाणोच्चि किरियपालणा सइसमाउत्ता i } जो अपने से गुणों में ऊँचे हों, समान हों, उनका सदा सहवास करना चाहिए — उनकी सन्निधि में रहना चाहिए । स्मृति-समायुक्त होते हुएअपनी आचार - विधि को स्मरण रखते हुए अपने गुणस्थान के अनुरूप क्रियाओं का पालन करना चाहिए । [ ४५ ] उत्तरगुणबहुमाणो सम्मं भवरूवचिन्तणं चित्तं । अरई य अहिगयगुण तहा तहा जत्तकरणं तु ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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